Thursday, 29 October 2020

लिखने दो

लिखने दो
समय को अपना इतिहास
जब आयेगी गवाहों की बारी 
मैं दूँगा गवाही
हक और और हुकूक के लिए
न्याय की बाट जोहते
अन्तिम पायदान पर स्थित 
लोगों की तरफ से
और दर्ज कराऊँगा अपनी
जोरदार उपस्थिति
पड़ने लगेगा जब न्याय पर 
अन्याय का पलड़ा भारी
एवं दी जाने लगेंगी अनैतिक को नैतिक 
घोषित करने की राजाज्ञाएं 
मैं खड़ा होऊंगा उनके प्रतिरोध में
युगों से ओढ़ी हुई 
चुप्पियों को तोड़कर
मैं लिखूंगा समय के सफ्फाक पन्नों पर
अपनी उपस्थिति का इतिहास
जो मिटाये जाने के बावजूद बना रहेगा
समय जैसा अमिट ।

Friday, 11 September 2020

बनवारी मास्टर

परेशान थे बनवारी मास्टर 
कल की तरह
आज भी आयेगा पटवारी
और झाड़ेगा अपनी पटवारीगीरी
जिसे समझना 
न समझने के जैसा ही होगा
फिर भी! 
सुनना तो पड़ेगा ही
मामला राजस्व से जुड़ा जो है
मुकम्मल समय के इंतजार में
आन्तरिक उधेड़बुन में व्यस्त
बनवारी मास्टर से
कैसे किस प्रकार के
तमाम सवाल आ आकर
कर रहे थे लगातार
चुहुलबाजी
परन्तु चुप थे बनवारी मास्टर
एक अंजाने भय से
क्योंकि उन्हे पता था 
पटनारी का रवैया व ढर्रा
सड़िहल दूध पीने के बाद
अक्सर बहक जाता है 
पटवारी
और चल जाती है उसकी कलम
इधर से उधर
इसीलिए परेशान थे 
बनवारी मास्टर
क्योंकि उनके जैसों के द्वारा ही 
बनते है बहुत से पटवारी
जो नाप दे देते हैं
कहीं का कहीं ।

Tuesday, 28 July 2020

जोंक

जोंक जैसे होते हैं 
कुछ लोग
जो गोंद,लेई 
या अन्य चिपकने वाले पदार्थों के 
अभाव में भी
चिपक जाते हैं 
अपने भीतरी दाँतों की चुभती हुई 
आरियों के सहारे
और लगातार चूसते हुए लहू
शीघ्र ही बना देते हैं
अपने अवलम्ब को जर्जर और शक्तिहीन
जमा लेते हैं 
जब पूर्ण रूप से उस पर 
अपना आधिपत्य
और हो जाते हैं सबल
तब करने लगते हैं 
अनावश्यक रूप से प्रत्येक कार्य में 
दखलंदाजी
बावजूद इसके अवलम्ब 
बनाये रखता है
खुद को एत्मिनान से उसके साथ
उसकी यही समझ 
उसे ले जाती है पतन के 
गहरे खड्ग की ओर
और उसके कुनबे को 
बिखराव की तरफ
मांस और हड्डियों के लालची 
आवारा टाइप के श्वान
घसीटते हुए शोणित सिक्त 
शरीरों में खोजते हैं 
मज़बूत हड्डियां 
बीच बीच में अपनी भौंकन के द्वारा
करते हैं दूसरे प्राणियों के समक्ष
अपनी शक्ति का प्रदर्शन
जिसका तमाशा देखती दुनिया 
एवं अफसोस के शब्दों को दुहराते हुए 
बढ़ जाती है  
उसी रफ्तार से आगे
और जारी रहती है जोक की खून चूसने की
कभी न रुकने वाली प्रवृत्ति
जिसके शिकार बनते रहते हैं
गाहे बेगाहे सीधे सादे जीव

Sunday, 26 July 2020

अनुलोम और विलोम

अनुलोम और विलोम के बीच फंसा 
मैकेनिज्म
बहुत ही घातक होता है
क्योंकि यह दोनो चक्की के
दो पाट की तरह होते हैं
जिनके बीच फंसा हुआ
मैकेनिज़म 
पिसता रहता है
आनाज के दाने की भांति
कभी थूल तो कभी महीन
और कष्टों को सहता हुआ भी
करता है कोशिश
दोनों के मध्य सामंजस्य बिठाने
जिससे साथ साथ चलती रहें
दोनों क्रियाएं 
जैसे साथ साथ चलते हैं 
सुख और दुःख
साथ साथ रहते हैं 
धूप और छाया
साथ साथ रहते हैं
स्वेद और श्रम 
उसी प्रकार साथ साथ रहते हैं
अनुलोम और विलोम
कुछ लोग चमकाते है
इन्ही के बीच अपना धंधा
और घोषित करतें हैं 
खुद को फरिश्ता ।
        प्रद्युम्न कुमार सिंह

Saturday, 11 July 2020

पान की वेगम

क्या है ?
पान की बेगम का रंग
लाल तो बिल्कुल नहीं
फिर कौन सा रंग होगा ?
सोचने लायक है यह बात
लालायित रहते हैं
जिसके लिए बहुत से लोग
मिल जायेंगे खोजते हुए 
सीधी सपाट जगहों से लेकर 
गली मुहल्लों के नुक्कड़ों तक
बेपरवाह आवारा से
खोज लेने का 
मन ही मन लगाते हुए कयास
इसलिए नहीं कि वह 
बहुत अधिक प्रिय है उनको
बल्कि इसलिए कि 
उसके रंग में ही छिपा है
उसकी सुर्खी का राज
जो आज भी बना हुआ 
लोगों के लिए अचरज़ का विषय
जिसे खोजने के 
अभी तक के सभी प्रयास
हो चुके हैं असफल
बावजूद इसके कुछ उत्साही लोग
अब भी जारी रखे हुए हैं 
अपने खोजी अभियान
जिससे बना रहे
खोजों के प्रति लोगों का 
दृढ विश्वास
और खोजे जा सकें 
पान की बेगम जैसे 
बहुत से अनखोजे रंग 
फिर भी रह रह उठता है 
मन में एक प्रश्न
आखिर क्या होगा ?
पानी की बेगम का रंग

Tuesday, 7 July 2020

*** तुम्हारा गाँव हूँ***

मैं वही तुम्हारा गाँव हूँ
जिसकी छतें पानी से 
प्रेम करती थीं
चाँद से रात भर बतियाती थीं
सूरज से प्रतिस्पर्धा कर
स्नेहिल छांव में प्रदान करती थी
स्वर्ग सा सुख 
आकर्षण का केन्द्र होती थीं
मेरे पोखरों की फूली हुई कुमुदनियां
संकरी पगडण्डियों में 
फूट पड़ते थे आनन्द के उत्स 
रिश्तों की मिठास को सहेजे
प्यारी गौरैया फुदकती थी 
इस आंगन से उस आंगन तक
मेरी सीमा पर खड़ा 
बूढा बरगद बाँटता था 
पथिकों के बीच अपरमित स्नेह 
और मेरा विस्तृत वक्ष ही 
होता था अमीर,गरीब,
बच्चे,बूढ़े,
स्त्री और पुरुष 
सभी के लिए आश्रय स्थल
मेरे सानिध्य के लिए तरसते थे
देवता भी 
फिर भी तुमने मुझे छोड़ दिया
यह कहते हुए कि
तुम्हारी गोद में रहूँगा तो
वंचित रह जाऊँगा 
आधुनिक सुख-सुविधाओं से 
बावजूद इसके मैंने नहीं बदला 
अपना स्वभाव 
और नही परिवर्तित किया 
जीने का अंदाज
मैं आज भी खड़ा हूँ
अपनी सिवारों के सहारे
ममत्व की उसी भाव भंगिमा के साथ
क्योंकि मैं गाँव हूँ
जो कभी नहीं भागता 
अपने कर्मपथ से
मैं आज भी उतना ही सक्षम हूँ
जितना सदियों पूर्व 
हुआ करता था
जिसमे सहजता सरलता 
और आत्मीयता के गुणों से युक्त 
सरहदों सरीखे
तुम भी होते थे मेरे साथ  I

Saturday, 20 June 2020

****वे पिता ही थे****

वे पिता ही थे
कभी भी नही कराते थे
जो एहसास 
अपने जर्जर होने का
अपनी विवाइयों के दर्द
कई रातो के जागने की
व्यथा का
क्योंकि वे देखना चाहते थे
हमेशा ही
बच्चों को खुश
वे उनकी ही खुशी में 
ढूंढ लेते थे 
खुद की खुशी
उनकी चहकन में
भूल जाते थे 
जीवन की फीकी होती
खुशियों की तासीर
वे नहीं चाहते थे
कभी भी उनका दर्द
जान सके उनके बच्चे
और उनकी खुशियों के क्षणों में
बन जाये बाधक
इसीलिए वे छिपाते थे
हमेशा ही अपने बच्चों से 
अपना दर्द

Thursday, 18 June 2020

****क्या तुम तैयार हो?****


क्या तुम तैयार हो ?
ओढी दसाई
मानसिकता ओढने के लिए
यदि हां 
तो निश्चित रूप से
तुम दे रहे हो खुद को 
धोखा
क्या तुम तैयार हो ?
आदिम परम्पराओं की ओर 
जाने के लिए
यदि हां 
तो निश्चित रूप से तुम
ढोंग कर रहे हो
अपने आप से
क्या तुम उत्सुक हो
        प्रद्युम्न कुमार सिंह
             प्रवक्ता
     श्री जे० पी० शर्मा इण्टर कालेज
           बबेरू बांदा उ०प्र०
       पिन कोड - 210121
       मोबाइल-08858172741

Tuesday, 26 May 2020

****तुलसी की रत्नावली****


बहुतायत में पत्नियां सदा से
बंधी चली आयी हैं
पति के अनुशासन की डोर में
पूर्ण करती रहीं हैं
उनकी हर एक इच्छा को
इच्छा चाहे मर्यादित हो 
या अमर्यादित
उचित हो या अनुचित
किन्तु तुलसी की पत्नी 
रत्नावली ने
ठुकराया है 
तुलसी का अंधाधुंध मांशल प्रेम 
जो तुलसी को तुलसी बनने के मार्ग में
बाधक था
जिसके लिए रत्नावली को तपना पड़ना
वियोग घोर उत्ताप में
पत्नियां भी नहीं कर पाती 
अपने प्रिय को 
कभी भी अपने से अलग
क्योंकि वे नहीं सह सकती हैं
अनन्तकाल तक चलने वाली
वियोग की असीम पीड़ा
जिसकी आँच में तपकर कुन्दन सा 
निखर उठता है 
प्रेम के प्रति उनका उत्सर्ग
जिसकी दीप्ति से 
दीपित हो जाता है उसका 
विदग्ध प्रेमी
ठीक रत्नावली की तरह
जिसकी फटकार ने 
परिवर्तित कर दिया था 
रामबोला को 
हमेशा हमेशा के लिए 
तुलसी में
पत्नियां हमेशा से चाहती रहीं हैं
पति की प्रतिष्ठा स्थापन
इसीलिए रत्नावली ने 
निभाया पत्नी धर्म
और कभी नही बनी 
पति की सिद्धि में बाधक
इस बात को विस्तार से बताते हैं 
रामदीन पुजारी 
जो रहते थे रत्नावली के ही गाँव में
पहली बार हमने तो सुना था 
इन्हीं कानों से मामा के गाँव में
उन्हीं के श्री मुख से
जब उन्होंने वर्णित किया था 
दामाद तुलसी का हाल
प्रसंगवश पूछने पर हो गये थे 
भाव विह्वल 
और साध लिया था 
कुछ क्षणों के लिए मौन
उनके आंखों से निकलते हुए 
आंसू करा रहे थे
आभास उनके अन्तस के 
अवसाद का 
गहरी पीड़ा उभर पड़ी थी 
एकवयक उनके मानस में
गहन टीस थी 
रत्ना को लेकर उनके भीतर 
झकझोर रही थी जो उन्हे
जैसे निज सुता के दुःखों से तापित होता है
एक असहाय पिता
वैसे ही व्यथित था उनका भी हृदय
यद्यपि प्रश्न था बहुत ही छोटा
परन्तु उत्तर न था थोड़ा
आह भरते हुए बोले क्या बताऊ बेटा !
रत्नावली के सन्दर्भ में निःशब्द हूँ, स्तब्ध हूँ
हाँ इतना अवश्य कह सकता हूँ
कि वह मेरी दृष्टि में 
तो साकार रूप थी भोलेपन
जो जीती रही बेचारी जीवन भर
इसी भूमि पर अभिशप्त जैसा जीवन
जिसे भुला दिया है जग ने भी 
परित्यक्ता और उपेक्षिता की तरह
अब मैं क्या बताऊ तुम्हे?
पर था मन में उसके एक सन्तोष
पति के हित आ सकी वह काम 
आसान नहीं था जिसे साधना
नहीं बनी कभी भी विघ्न वह
साधना में उनके 
गुजार दिया बस यूँ ही
पति हित चिन्तन में सारा जीवन 
सहते हुए असीम दुःखों को 
जिसकी सुध नहीं लिये 
कभी भी उसके भगवान तुलसी
तो कैसे कोई और याद रखता उसको 
भूल गये सभी एक अबला समझ
कवि को क्या पड़ी थी गरज
चिन्तक क्यों देते उस पर ध्यान 
इतिहासकार तो लिखते हैं वही 
जो दिला सके उन्हे ख्याति 
बचे थे कुछ गाँव के बुजरूग लोग
जो सहेजे थे जेहन में 
बेटी की चिरन्तन पीड़ा का 
एहसास
सहा था जिसे पुत्री ने 
जीवन पर्यन्त
तपती रही दोपहर की धूप सी वह
अद्भुत सौन्दर्य की स्वामिनी
पर नहीं किया लांछित 
पति के व्रत को
मौन रह स्वीकार लिया था
विधि के लेखे को
इसके अतिरिक्त आखिर वह 
कर भी क्या सकती थी ?
टकराने की उसमे हिम्मत न थी
पुरूष सत्ता से
या फिर बांधे थे समाज के दस्तूर उसे
या फिर बांधती थी 
उसे कालिन्दी की धार
या फिर उसके खुद के वसूल और हालात
इससे ज्यादा की नहीं दे रहे थे  
उसको इजाजत
जो भी रहा हो इनमें से 
जो उसे रोक रखा था उसके पथ पर
परन्तु वह रत्ना थी रत्नों सी 
चमक थी उसमे
पति के व्रत को ही शिरोधार्य कर
मानती रही सधवा रहने को ही 
सदैव अपना सौभाग्य
रही सदा वह जंगल में रहते 
लक्ष्मण की उर्मिला सी 
पति से दूर
उसकी ही इच्छाओं की शुभेच्छु 
परन्तु आज भी डरते हैं 
महेवावासी 
ब्याहने से राजापुर में अपनी बिटिया 
शायद फिर से न छोड़ दे 
किसी रत्नावली को
उम्र भर तड़पने के लिए 
कोई तुलसीदास
यद्यपि नहीं अधिक दूरी दोनों के बीच
यमुना ही है मात्र सीमारेखा दोनों की 
पर न जाने क्यों ? 
इतने दिनों के बाद भी
डरे हुए हैं बेटियों के पिता
नहीं ब्याहते रत्नावली के गाँव वाले 
अपनी बेटियों को 
तुलसी के गाँव 
शायद नागवारा गुज़रे 
कुछ लोगों को मेरी बात
और बके बहुत सी गालियां
पर न जाने क्यों ?
आज भी हमें बरबस आकर्षित करती है
रत्नावली की स्मृति
जो कराती है हमें एहसास 
बेटियों के लिए 
ससुराल वालों  से 
अधिक मायके वाले होते हैं 
हितकारी
जो रखते हैं बेटियों के हितो का 
ध्यान जिन्दगी की आखिरी सांस तक 
उन्हे जब होती है
सबसे अधिक उसकी आवश्यकता । 
                प्रद्युम्न कुमार

Friday, 22 May 2020

****बदली से****

बरसात को बुलाने वाली बदली 
रखती है सहेजकर 
अपने आंचल में 
जल  की बूंदे
जैसे सहेजती है 
एक करुणामयी माँ 
अपने पनीले अनुभवों को 
अपने अन्तर्मन मे
और लुटाती है सबके लिए
सहज भाव से
वत्सलता का सुधारस
मगर अफसोस !
अक्सर हम भूल जातें हैं
या यूँ कहें कि
हम विस्मृत कर देते हैं माँ का
अवदान और मातृत्व का भाव
बदली से विलग हुईं बूंदों की तरह 
जो फिर कभी नहीं मिलती 
अपनी जन्मदात्री बदली से।
                      प्रद्युम्न कुमार सिंह

Wednesday, 20 May 2020

****बजारों की उम्मीदें***

आज भी जिन्दा हैं
बंजारों की उम्मीदें 
कि चलती ही रहेगी मुश्किलों में भी 
उनकी जिंदगी की गाड़ी 
फुटपाथों या सड़कों के किनारे 
जहाँ कहीं भी 
दिख जाती है उन्हें 
थोड़ी सी भी 
अनुकूल जगह 
वहीं वे खड़ी कर देते हैं 
अपनी लढी
साथ ही साथ खड़ा कर लेते हैं 
वहीं अपना छोटा सा तम्बू
बाँस-बल्ली के सहारे 
छोंडकर स्त्री और पुरुष का भेद 
बंजारनें उठा लेती हैं 
भारी बोझीले हथौडे                                               बावजूद इसके इन श्रमजीवियों को 
देखा जाता है                                    
हिकारत भरी निगाहो से                          
सुविधा भोगी समाज के द्वारा 
और उड़ाता है इनका मज़ाक၊                    
फिर भी बेलौस जिन्दगी 
जीते है बंजारे                       
और खेल खेल में ही सीख लेते है         
 लोहे के हुनर की बारीकियों को             
नंग धड़ंग उनके बच्चे                             
मगर अफसोस है 
कि ग्लोबल होती जा रही दुनिया में 
खतरे में पड़ता जा रहा है 
बेचारे हुनर बाजों का अस्तित्व

****वाह गुज्जू भाई****

वाह गुज्जू भाई
तुम तो कमाल करते हो
आफत की इस घरी में भी
खुद को लाल कहते हो
लम्पट संग चलकर चम्पई चाले
बन चुके हो रम्पत 
क्या सुर्ख अंदाज है तुम्हारा
क्षण में ही काम तमाम करते हो

वाह गुज्जू भाई
तुम तो कमाल करते हो
घालमेल की खिचड़ी खाकर
धमाल करते हो
रिश्वत,बेइमानी और मक्कारी को
बदल देते हो सहज ही 
गोलमाल की नव परिभाषाओं में
उठती हुई उंगलियों को बुरी तरह मरोड़कर कर देते हो हमेशा के लिए निरर्थक 

वाह गुज्जू भाई
तुम तो कमाल करते हो
विश्व मोहनी सी सूरत पर 
मुस्कान लाकर
तालियों की तीलियों से ही
भुवन को लहूलुहान कर
बड़ी ही साफगोई से
पोत देते हो
सच पर फरेब की कालिमा

वाह गुज्जू भाई
तुम तो कमाल करते हो
धनुवा हो या फिर हो रमुवा
सुनने को तुम्हारे शब्दों की जुगलबन्दी
बेताब रहते हैं
और नवाजते हैं तुम्हे आशीष
तालियों की गड़गड़ाहटों से
जो करती रहती हैं तुम्हारे अन्तस में
उत्साह का संचार
और गूंजती रहती हैं सदा ही
दिल दिमाग के आस पास ।

Saturday, 2 May 2020

***** गंगारामों के उस्ताद जमूरे****

देश घिरा हुआ है
संकट में
कुछ रहे खीस निपोर 
चमगादड़ो सा 
कुछ संकट का रोना रोते
कुछ जनमत बहुमत की
बातें करते
उपाय विहीन सुबकते
जग के नर नारी
दोष एक दूसरे पर मढ़ने में
व्यस्त हुए महाजन
कुछ सड़कों में लूटने को तैयार
कुछ तैनात हुए भक्षक बन
मालों गोदामों में
लूट रहे कुछ भय का राग 
आलाप 
बांह फैलाये कुबेर खड़े है 
महामारी के स्वागत में
शामिल हैं उनके संगी बन
जननायक 
जिसमें निभा रही 
गणिकाएं अहं भूमिकाएं
बढ चढ़कर
मिलकर भटका रहे ध्यान हमारा
मौत के सौदागर 
पस्त हुए हौसलों को 
कन्धा देने को उत्सुक
अब भी खेल रहे जनभावों से
गंगारामों के उस्ताद जमूरे I

***×वह लड़ रहा है***

अन्तर्राष्ट्रीय मजदूर दिवस पर श्रमगारों को समर्पित एक रचना -
वह लड़ लेगा !
प्रकृति के थपेड़ों ने 
पाला है उसे
वह मोहताज नहीं किसी का
न ही गुलाम है किसी का
यह सच है
उसमे हौसलों की कमी नहीं है
उसके ललाट पर चमकती
श्वेद की बूंदे बता २हीं हैं
वह खोद सकता है
प्यास के लिए कुआ
दुह सकता है 
भोजन के लिए घरती को
झुका सकता है आकाश को
अपने फौलादी इरादों से
वह तीर की तरह चीर सकता है
अंधड़ों को
क्योंकि संघर्ष ही उसकी सच्चाई है
आखिर वह एक मजदूर है
जो हर परिस्थिति में जीता है
अपने मौजू अन्दाज में ।

Sunday, 15 March 2020

छुपे हुए हैं

छुपे हुए हैं
अभी भी कई मनसुख लाल 
तुम्हारी ओढी हुई 
खोल में
कर रहें हैं 
जो समय का इंतजार
ध्यान से खोजो उन्हे
मिल जायेंगे लिपटे हुए
चीलरों की तरह 
रिश्तों की दुहाई देते हुए
दिखेंगे तुम्हारे गर्म खून पीने में तत्पर
उन्होने बना लिए है
उन्होने खोज लिए आवरण की 
परतों में ही अपने लिए 
रहने के सुरक्षित स्थल
जिसमे सहायक बनी हुई है
तुम्हारी लाचारी
यद्यपि तुम भी नही हो खुश
इनकी सहभागिता से
बावजूद इसके वे कामयाब है
खुद के मुताबिक तुम्हे ढालने में 
परन्तु तुम्हे सन्तोष है 
परिवर्तित होते समय में
असंगत हो  चुकी
झूठी शान पर के बनाये रखने पर
जिसके हो चुके हो तुम आदी
और वे खुश हैं 
तुम्हारे चकनाचूर स्वप्नो के 
विखराव में भी
छुपने की जगहों में 
अपना स्थायित्त्व हाशिल करके
क्योंकि उन्हे मालूम हो चुकी है
तुम्हारी कमजोर पड़ती हुई
सामर्थ्य जिसे धराशायी होने में
कुछ दिन ही शेष रह गये हैं

Monday, 9 March 2020

*****खौफ के साये में दिल्ली****

आखिर क्यों ?
चुप रहती है दिल्ली
उदार दाराशिकोह को 
अपमानित कर
घुमाया जाता है जब
हाथी की नंगी पीठ पर बैठाकर.

आखिर क्यों ?
चुप रहती है दिल्ली
रक्त पिपासु
नादिर शाह मुस्कुराता है
जब रक्तरंजित लाशों के बीच 
खड़े होकर

आखिर क्यों ?
चुप रहती है दिल्ली
हिन्दुस्तान का लाल 
बन्दा बैरागी
जब कुर्बान हो जाता है 
देश के खातिर

आखिर क्यों ?
चुप रहती है दिल्ली
विद्रोह का नेतृत्व करने वाले
बहादुर शाह ज़फर को
जब कर लिया जाता है
देशद्रोह के जुर्म में 
उसी के पितामहों प्रपितामहों की 
कब्रो के पास से

आखिर कब तक ? 
चलता रहेगा यूँ ही
और खामोश बनी रहेगी दिल्ली
क्या कभी भी ?
हुंकार नहीं भरेगी दिल्ली 
या फिर सदा की भाँति
एक बार फिर से किसी आतताई के 
खौफ के साये में 
डरी सहमी दिल्ली
नतमस्तक बनी रहेगी मौन 

Friday, 24 January 2020

जन गण मन

जब तक वे रहते हैं
एक दूसरे के विरुद्ध 
तने हुए
नदी के किनारों की तरह
तब तक स्वच्छन्द 
बहती है नदी
दोनो विपरीत किनारे 
जब भी करते हैं
आपस में मिलने का प्रयास
हमेशा खड़ा करते उस
उस नदी के अस्तित्व पर संकट
जिसकी कोख से 
वे खुद जनमते है
ऐसा ही निहायत विरोधी
रिश्ता होता है
राजनीति और साहित्य का 
जब तक रहते हैं
एक दूसरे के खिलाफ
जन गण मन लेता है
स्वच्छन्द रूप से सांसे
और मिलने पर 
हांफता हुआ ।

Thursday, 23 January 2020

तुम्हे डरायेंगे

वे तुम्हे डरायेंगे 
पर तुम डरना नहीं 
वे करेंगे 
तुम्हे तोड़ने का प्रयास
पर साथी तुम पूरी तन्मयता के साथ
एकजुट रहना
थे देंगे तुम्हे पीने के लिए 
नफरती ज़हर का प्याला
अमृत समझ पी लेना
वे करेगे गुमराह
तुम राह खुद चुन लेना
वे लगायेंगे दाग दामन पर
तुम उसे भी पूत बना देना
ऐसा करते हुए
ध्यान रहे जीतते वही हैं
जिनमें जीतने का माद्दा होता हैं 
साथी तुम डटे रहना
अपने विश्वासो के साथ
क्योंकि वे डर चुके हैं
पूरी तरह से
अब तो बस उसका 
खोल निकलना रह गया है शेष

बड़े नामुराद

बड़े नामुराद निकले तुम
खाते हो किसी का
और गाते हो 
किसी और का
अपनी धरती से प्यार नहीं
औरों की धरती को मां कहते हो

बड़े नामुराद निकले तुम
औरों के लिए कहते हो अपशब्द
तो तुम्हारे लिए कोई बात नहीं
और कहें तुम्हे तो
गाली समझते हो
अपनी करनी कथनी के भेद
भाते हैं
पर दूसरों की सच्ची बाते 
जहर सरीखे लगती है

बड़े नामुराद निकले तुम
हमसफरों की परवाह नहीं तुम्हे
गैरों पर नज़र फरमाते हो
कठ से काठ
काठ से उल्लू का पाठ पढाते हो
देख रही दुनिया सारी
खुलेआम बंटती
तुम्हारी नफ़रती पंजीरी

बड़े नामुराद निकले तुम
तिल का ताड़ बनाते हो
जीवन रस में
घोल रहे निज विष की हाला
पीकर जिसे भभक रहे
लालटेन के कल्लों से
मद में झूमते मतवाले

थक चुके है

थक चुके हैं
सारे शब्द
थक चुकी है
सभी मर्यादाएं
थक चुके है
जीवित लोग
क्योंकि थकना !
रुक जाना नहीं होता
बल्कि रुककर फिर से
स्फूर्ति प्राप्ति का
माध्यम होता है
यद्यपि आसान नहीं होता 
इस सच्चाई को
सहज में स्वीकार कर पाना
इसीलिए कुछ लोग मान लेते हैं
थकने को 
असफल होने के पूर्व 
संकेत 


बड़े नामुराद

बड़े नामुराद निकले तुम
खाते हो किसी का
और गाते हो 
किसी और का
अपनी धरती से प्यार नहीं
औरों की धरती को मां कहते हो

बड़े नामुराद निकले तुम
औरों के लिए कहते हो अपशब्द
तो तुम्हारे लिए कोई बात नहीं
और कहें तुम्हे तो
गाली समझते हो
अपनी करनी कथनी के भेद
भाते हैं
पर दूसरों की सच्ची बाते 
जहर सरीखे लगती है

बड़े नामुराद निकले तुम
हमसफरों की परवाह नहीं तुम्हे
गैरों पर नज़र फरमाते हो
कठ से काठ
काठ से उल्लू का पाठ पढाते हो
देख रही दुनिया सारी
खुलेआम बंटती
तुम्हारी नफ़रती पंजीरी

बड़े नामुराद निकले तुम
तिल का ताड़ बनाते हो
जीवन रस में
घोल रहे निज विष की हाला
पीकर जिसे भभक रहे
लालटेन के कल्लों से
मद में झूमते मतवाले

Wednesday, 22 January 2020

जा चुके लोग

 जा चुके लोग
यद्यपि नही आते कभी भी
वापस लौट कर
किन्तु वे बचे रहते हैं
समय की खुरचन में
स्मृतियों के रूप में
और याद आते हैं
गाढे समय में शिद्दत से
अपने विचारों की ज्योति लिए

शहर की सड़क

शहर की सड़क पर
कपड़ों के नाम पर
फटे चीथड़े पहने
कूड़ा बीनते हुए मासूम बच्चे
नन्हे कन्धों पर जिम्मेदारी को बोझ
उठाये हुए
खोने के डर से 
नन्ही मुट्ठियों से
थैले को दबाये हुए
लगातार खोज खोज कर
शहरी अपशिष्ट से 
बढा रहा था थैले का आकार
जिसमे बसता उसका
छोटा सा संसार
वह नही जानता
बहुत से दुनियावी खेल
क्योंकि वे सभी 
उसकी पहुँच से बहुत दूर है
जिन्हे चाहकर भी 
वह नहीं खेल सकता
उसके लिए तो मात्र
कुछ काँच की बनी गोलियां
और एक पैर से खेला जाने वाला 
खेल ही
दुनिया का सबसे विशिष्ट खेल है
जिसका वह बेताज बादशाह है 
इसके अतिरिक्त
न तो वह कोई खेल जानता है
न ही उसे मिलती है फुर्सत
क्योंकि उसके हर खेल के साथ
थैला होता है 
और थैले के साथ उसका हर खेल
 जो कूड़े के ढेर शुरू होकर
उसी में सिमट जाता है I

****ठूठ की तरह****

एक ठूठ की तरह
वह हमेशा खड़ा रहता था 
आंगन के बाहर दरवाजे के
एक कोने में
कराता था
हर आने जाने वाले को
अपने होने का एहसास
हमें लगता था
बेकार हो चुका है वह
जाने अनजाने खोजते थे
उसकी बुराइयाँ
पर इन सबसे बेपरवाह
वह दिलाता रहा 
अपने अस्तित्व का एहसास
आज जब ढह चुका है वह
निढाल होकर पूरी तरह 
हमे मालूम हो रहा है
उसके खड़े रहने की 
अहमियत
जो मात्र ठूंठ ही नहीं था
बल्कि हमारे दायित्वो का बोझ
संभाले हुए हमारा सम्बल था
जिसके साये में
हम आज तक महफूज रहे


Monday, 20 January 2020

उनके लिए

जब युवा मांग रहें हैं
बेरोजगारी से लड़ने हेतु
रोजगार
ऐसे समय वे थमा रहें हैं
तुम्हारे हाथों में खुश रहने के नुख्शे
तुम्हे ही गलत साबित करके

जब तुम लड़ रहे हो भूख से
वे दिखा रहें हैं
तुम्हे हसीन सपनों के सब्जबाग
और आसानी से कर लेते हो यकीन
भूख से अधिक आवश्यक है
सपने
एवं चल लेते हो सपनों की खोज में

जब तुम सोच रहे होते हो
अपने बारे में
वे बताते हैं तुम्हारे कर्तव्य
जिनके लिए तुम्हे छोड़ना होता है
अपने बारे में सोचना
और तुम छोड़ देते हो
उनके लिए सब कुछ 
l

कौन हैं वे लोग

कौन हैं ?
वे लोग
जो लगा रहे हैं
अमन चैन सें आग
और जलते रहने के लिए
लगातार डाल रहें हैं
नफ़रती घी

कौन हैं ?
वे लोग
जो चूस रहें है
अमीरों को और अमीर बनाने के लिए
पी रहें हैं गरीबों का लहू
अपने दिखावटी मासूम अदाओं की
आड़ में

कौन है ?
वे लोग
जिनकी बाते पूरित होती है
विश्वास के स्थान में
अविश्वास द्वारा 




Sunday, 19 January 2020

****शिलालेख नहीं होती****

शिलालेख !
नहीं होती जिंदगी
जिसे अंकित करा दिया जाये
किसी राजा के द्वारा
भाषाविद की मदद से
राजाज्ञा के रूप में
ना ही हकीकतों से दूर 
भागने का नाम है 
बल्कि समय की चुनौतियों को 
स्वीकार कर
जीने की कला है
जिसमें रिक्त रहती है 
हमेशा कुछ जगहें
जिसमे समाहित होती हैं
मासूमियत, आवारगी
और नादानी 
जिनसे होकर गुजरती बेलौस जिन्दगी

*****अफीमचियों का प्रेम*****

अफीमचियों का प्रेम ही है
कोई सेवन करता है
नशे के रूप में
कोई नफे के लिए
दोनो का वह प्रेम ही है
जो जोड़े रहता है 
उन्हे एक दूसरे से 
इच्छा न होते हुए भी
एक सरकता है धीरे से 
और पूंछता है करीब आने पर
क्या अफ़ीम लोगे ?
दूसरा कहता ही नहीं 
बल्कि भरता है 
नकार के साथ हामी भी
अफीम के प्रति ।
क्योंकि अफीमचियों का प्रेम 
होता ही ऐसा है
जो लाख बुराइयां होने के बावजूद
बना रहता है
एक दूसरे से पूर्व की भाँति 
स्थिर और मजबूत

Saturday, 18 January 2020

****केवल मुस्कुरा देते हैं ****

पढ़-लिख गए हैं
अब
उन्होने पढ ली है 
संसार की तमाम पोथियां
जिनमे लिखा हुआ है
नफ़रत वह फौलादी अवरोध होती है
जिसके पार जा सकना
आसान नहीं होता
मुकम्मल तैयारियों के साथ ही
विजित की जा सकती हैं
ऐसी दीवारें
यद्यपि उन्होने इनसे निपटने के लिए
 खरीद लिया है
जुराब और दस्ताने 
जिससे बचा जा सके आसानी से
इसीलिए उन्होने बदल लिया 
अपना पारम्परिक पैतरा
अब वे नहीं हंसवे हैं
खुलकर
बल्कि समय की नज़ाकत भांपकर
केवल मुस्कुरा देते हैं

****यह सच है***

यह सच है !
समय के साथ बदलता रहता है
दुनिया में बहुत कुछ
फिर वह चलती रहती है
अपनी ही रफ्तार के साथ अनवरत
कुछ चीजें हैं
जो कभी नहीं बदलती 
या यूँ कहे नही बदल सकती
मसलन प्राकृतिक वैभव से युक्त
खुशी झलक पड़ती है
पूरी मासूमियत के साथ
चेहरों में मुस्कुराहट के रूप में
यद्यपि कुछ लोग
तंज कसते हैं
चेहरों में खिली मुस्कुराहट को देखकर पर
पर रोक नहीं पाते
चेहरों से नव किल्लियों के रूप में
फूटती सच्ची हंसी को

Thursday, 16 January 2020

***उदास होती***

हाँ ठीक सुने हो
अक्सर उदास होती हैं
खिलखिलाती सुबहों की शामें
जैसे हंसती जिंदगी
लौट पड़ती है
समय के पड़ाव पार करते हुए
उदासी की ओर
वायु के झकोरों से लड़ता हुआ
दीपक
तेल के खत्म होने पर
उदास होकर
बुझने लगता है
और छोड़ जाता है
कालिख की स्याही 
रात्रि के माथे पर
उदास होने की 
स्मृति के रूप में

***बड़ा आदमी***

जो छोटो से
प्रेम और स्नेह का 
आचरण करता है
औरों की खामियों में भी
खूबियाँ खोजने का 
प्रयास करता है
आगे बढते व्यक्ति की
हर सम्भव मदद करता है
दूसरों के सुख दुख में 
सहभागिता करता है
भले ही उसके पास कुछ न हो
मैं मानता हूँ 
उसे बड़ा आदमी

जो दूसरों के लिए गड्ढे
खोदता है 
आगे बढने के सभी द्वार 
बन्द करता है
छिद्रान्वेषण के नये नये 
मार्ग खोजता है
बात बात पर झूठ का 
सहारा लेता है
अपना दोष दूसरों के
सर मढता है
उसके पास सब कुछ 
होने बाद भी
मै नहीं मानता हूँ
उसे बड़ा आदमी I



****हंसकर बिकने के लिए****

जो कुछ भी दिखाई देता है
क्या सब कुछ होता है
बिकाऊ ?
वाजार जिसे बेचना चाहता है
या फिर जिसे बेचता है
आखिर कब तक लगे रहोगे
बेंच खरीद के धंधे में

तुम कितना जानते हो
बेंच और खरीद के बारे में
क्या तुम्हारे द्वारा खरीदा जा सकता है
सभी का ईमान
या सबकी इच्छाएं
तुमने क्या कभी देखा है ?
किसी को बिकते
या फिर किसी को खरीदते

हक की आवाज उठाने को
क्या बिकना कहते हैं
या फिर सबको समान नज़रिये से
देखने को
या फिर पराई इच्छा पर
खुद को समर्पित कर देने को ही
कहेंगे बिकना
यदि इसे बिकना कहते हैं
तो मैं तैयार हूं वस्तु की तरह
हंस कर बिकने के लिए T


Wednesday, 15 January 2020

***दूसरी बहन***

दूसरी
मां होती है
बड़ी बहन
सहती है सभी कष्ट
पर खड़ी रहती है
छोटे भाई बहनों के आगे
सारी परेशानी से
रक्षार्थ मजबूत दीवार सी
माता सी वत्सलता की
प्रतिमूर्ति
स्नेह की सूत्रधार
होती है
सच में!
दूसरी मां होती है
बड़ी बहन




****तुम्हारा प्रेम****


तुम्हारा प्रेम !
वक्त की शिराओं में
स्वरों का विविधता युक्त 
अंदाज लिए हुए 
घुला हुआ है
शब्दहीन सिकुड़न में
ठिठुरन के साथ
आंखों में चमकता
तुम्हारा शहर 
और उसमे भटकते तुम
इस वेरहम वक़्त में 
भेद और अभेदयुक्त
गुमनाम चुप्पियां देती हैं
बताती हैं 
तुम्हारे प्रेम की दास्तान
जिसे शब्दों में व्यक्त कर सकना
सम्भव नहीं है
जैसे कांटों के लिवास में
उलझ कर रह जाता है
सुख का टिमटिमाता संसार

Tuesday, 14 January 2020

****खत्म होती****

खत्म होती जा रहीं हैं
धीरे धीरे
मानव के प्रति मानवीयता की
समस्त सीमाएं
समय के साथ साथ
बदल रही हैं
बहुत ही तेजी के साथ
रिश्तों के बीच की तपिश
जिनकी जिम्मेदारी
उठाते हैं
मानव अहं जन्य भाव 
जिन्हे भड़काने का कार्य करते हैं
कुछ निहित स्वार्थ
एवं उनके संचालक लोग
रोपदेते हैं जो बड़ी ही 
खूबसूरती के साथ नफ़रती अमरबेल
जिनकी जड़ों के चंगुल में
आ जाते है
बहुत निरपराध पौधे 
एवं उनकी शाखाएं
ठीक उसी प्रकार होते हैं
जैसे कुछ शातिर लोग
और उनके कुनबे
आमादा होते हैं खत्म करने में 
हंसते खेलते परिवारों को

***वे खोदते हैं***

वे बार बार खोदते हैं
अपनी चतुराई के गड्ढे
और उसमें खड़ी करते हैं
पेंचो खम की
बहुत सी अनुलंधनीय दीवारे
जिनकी रक्षार्थ नियुक्त करते हैं
बाकायदा प्रशिक्षित भृत्य
देते है जिन्हे
पगार के रूप में
स्वार्थ प्रेरित लिजलिजी 
बातो की हुंडियां
जिसकी चकमक में 
खो देते हैं अपनी चमक
सारे आदर्श और कर्तव्य बोध
बावजूद इसके वे
लगातार जुटे रहते हैं
निरन्तर खोदने में
हिकारती गड्ढे
इस प्रकार वे बेखौफ हो 
लागू करते हैं
अपना घृणित एजेण्डा
जिसकी जद में आता है
सभ्य समाज का बहुत बड़ा हिस्सा

Monday, 6 January 2020

****सच्चे योद्धा सरीखी****

हाँ !
उसे नहीं आती
अक्षरों की जुगाली
फिर भी वह
उत्सुक रहती है
उनके प्रति
कभी दायें कभी बायें
उन्हें ही खोजती है
उसकी निगाहे
जब कभी मिलती है
फुरसत
निकल पड़ती है वह
अंजान पथिक सी
खेल के समय जब खेल रहे होते हैं
सारे बच्चे
वह खोई रहती है
अक्षरों के इंतजार में ।

हाँ!
उसे नहीं आती
अक्षरों की जुगाली
पकवानों की आस में
जब सारे बच्चे
छोड देते हैं
सम्पूर्ण़ कार्य अधूरे ही
और गड़ाये रहते हैं
लालच भरी निगाहे उन्ही पर
तब भी वह व्यस्त रखती है
अपनी निगाहें
खोजने में अक्षरों की राह |

हां !
उसे नहीं आती
अक्षरो की जुगाली
फिर भी वह डटी रहती है
एक सच्चे योद्धा सरीखी
सुबरनों की खोज में
जिन्हे खोजा जाना अभी भी
शेष हैं ।