Monday 19 April 2021

चालू मौत का खेल है

चारों ओर मातम है 
चालू मौत का खेल है
रैलियों में व्यस्त सुल्तान हैं
पल पल टूटती जा रहीं 
अपनों की सांस हैं
स्तब्ध प्रजाजन हैं
धड़ल्ले से चल रहा 
नफ़े नुकसान का कारोबार है
कीमत चुका रही
अबोध जनता है
समय के कार्णिको द्वारा
लिखे जा रहें मौत के दस्तावेज हैं
चल रहा झूठी सांत्वनाओं का 
कुत्सित खेल है
और खुश जिम्मेदार लोग हैं
वे गिरा देते हैं अपनी आँखों से
रैलियों के बीच अश्कों के दो बूंद
निज दुःखों को भूलकर गदगद हो 
चल पड़ते लोग हैं
संभालते हुए झण्डों का बोझ
सत्ता के विस्तार के लिए
राजा के साथ।

निःशब्द हूँ

निःशब्द हूँ
अचानक यूँ तुम्हारे चले जाने से
रंग बिरंगे फूलों से
इतराते थे अपनी शाखों पर
पर न जाने क्यों
तुम चले गये 
महकता हुआ आंगन
चहकता बचपन छोड़कर
सदा सदा के लिए

निःशब्द हूँ
यह कल की तो थी बात
जब तुमसे हुई थी 
फोन पर मेरी बात
और तुम हाँफ रहे थे
मेरे मना करने के बावजूद
तुम किये जा रहे थे 
अपने मन की बात
क्या तुम भूल गये?
वे सब बातें जो तुमने की थी मुझसे

निःशब्द हूँ
अचानक यूँ तुम्हारे चले जाने से
बतियाते थे तुम मुझसे  हमेशा
अपने दुःख और पीड़ाओं के बारे में
निश्चिंत होकर
तुम्हारे शब्दों में एक आक्रोश होता था
अपने मान और सम्मान के प्रति
जिसे रौंद दिया जाता था
कुछ जाहिल लोगों के द्वारा हमेशा

निःशब्द हूँ
तुम्हारी यातनाओं के साक्ष्यों को देखकर
जब किया जाता था तुम्हे
पग पग प्रताडित
और तुम काँप जाते थे भीतर तक
फिर भी प्रसन्नचित होकर
दुबारा से लग जाते थे 
कार्य की पूर्ति में
और सम्पन्न कर लौटते थे
विजयी मुस्कान के साथ

निःशब्द हूँ
तुम्हारी इहलीला की समाप्ति सुनकर
लोग पंक्तिबद्ध तो नहीं हो सके 
पर चलते रहेगें लगातार 
तुम्हारी ही खींची रेखाओं पर 
अनुगामियों की भाँति
जिससे हासिल किया जा सकेगा
एक दिन उनका विश्वास
जो हमेशा से करते रहे
तुम्हारी निष्ठा और ईमानदारी पर अविश्वास
एक आशा के साथ कि
तुम लौट आओगे फिर से
अपना मुकाम हासिल करके।

Thursday 15 April 2021

कोरोना भी

कोरोना भी
बाबू मोसाय हो गया है
जब चाहता है,
जहाँ चाहता है
आ धमकता है
और फैला देता है
डर का कभी न थमने वाला सिलसिला
क्योंकि वह जानता है
दहशत के अस्त्र का प्रभाव
होता है जो अचूक और अकाट्य
इसीलिए खात्मे की सभी 
सम्भावनाओं के बीच
एक बार फिर से लौट आया है
बेखौफ होकर
उसका इस प्रकार से
पुनः लौट आना 
देता है कई सम्भावनाओं जन्म 
जो खोलती हैं 
जिरह की बहुत सी गाँठों को
लगा दी गई थीं जो शेखी के नाम पर
हमारी और तुम्हारी 
जुबानों पर जबरिया
और हम हो गये थे 
उसके खौफ से एकदम मौन
आज फिर से लौट आया
बाबू मोशाय बन कर
कोहराम मचाने पूरे जहान