Friday 28 December 2018

******एक बूढ़ा******

ठंड के संत्रास में भी
हँस रहा था
एक बूढा
दिख रहा था
टनाटन लोहे सा
मानों मौत से
जूझने आया हो
उसकी हँंसती आंखे
कुछ कह रहीं थी
मौन भाषा में
ठीक से सुन नहीं पाया
शायद उनका इशारा
संसार की बेरूखी
एवं स्वार्थलिप्सा की ओर था
मै कुछ पूँछता
उससे पूर्व ही
गड़ चुकीं थीं
मुझ पर उसकी आंखे
शायद वह पूँछना चाहता था
मेरे अतिरिक्त इस खुले
आसमान के नीचे
तुम कैसे ?
मैं झेप गया
और कुछ नहीं पूँछ सका
शायद मेरा झेपना ही
मेरे प्रश्न का जवाब था ।

Wednesday 26 December 2018

*****सलीबों में कहां लिखा होता है*****

सलीबों में कहां
लिखा होता है
किसी का नाम
फिट बैठे जिस पर
उसी के नाम
यद्यपि बदलते रहे
समय के साथ
उनके नाम और काम
फिर भी कायम रहा रुतबा
कभी सूली,
कभी फांसी,
कभी डाई,
कभी ज़हर के नाम
टीसती रही वेदना
और वेदना का ज्वार
क्योंकि सलीब के नामों से
नहीं वेदना के अनेक नाम
फिर चाहे अमीर हो
या हो गरीब
स्त्री हो या हो पुरुष गम्भीर
बचपन हो मासूम
या बूढा अधीर
सलीबों में कहाँ
लिखा होता है
किसी का नाम
कोई चढकर ईसा कहलाता
कोई पीकर सुकरात होता
कोई देश के खातिर
हंसते हसते फंदा
गले लगाता
और निशां दूर तलक छोड़ जाता
क्योंकि सलीबों में कहाँ
लिखा होता है
किसी का नाम
फिट बैठे जिस पर उसी के नाम

Tuesday 30 October 2018

*****सरदार !*****

सरदार !
कैसे बांधा जा सकता है ?
तुम्हे सीमाओ की परिधि में
सीमाओं से भी
बहुत ऊंचा हैं तुम्हारा कद
आखिर तुम कैसे समा सकते हो ?
बुतों की परिधि में
जबकि तुम्हारी आवाज
आज भी बसी हुई है
करोड़ों हृदयों में
किसी एक प्रतिमा में
नहीं रखा जा सकता है जिसे सुरक्षित
हक-औ'-हुकूक के लिए
उठी हुंकार आज भी
बनी हुई है
नवयुवकों के लिए
प्रेरणास्रोत
किन्तु सरदार ! आज
तुम्हारा बुत  रौंद रहा है
अस्तित्व
क्या तुम अब भी लड़ सकोगे
उसी मज़बूती के साथ
अपने ही बुत से
या फिर बूढे हो इंकार कर दोगे
दम तोड़ते अपने ही विचारों को
को पहिचानने से
नहीं नहीं सरदार तुम ऐसा नही
कर सकते
क्योंकि हमें उम्मीद है
तुम कल के सरदार की तरह
आज भी सरदार हो
जो फर्ज़ के लिए हमेशा डटा रहा
देश के एकत्रीकरण में ।

***** कभी नहीं ठहरता*****

कभी नहीं ठहरता
वक्त का घूमता पहिया
इसीलिए कभी नहीं ठहरती
धरती
और कभी नही ठहरता
आकाश
और नही ठहरते हैं
दिन और रात
यद्यपि लोग दावे
बहुत बड़े बड़े करते हैं
वक्त को रोकने के
पर ठहर नही पाते
उसकी गति' के सामने
या यूं कहें
नहीं रोक पाते
उसकी गति के सापेक्ष
अपने आप को
और इन सबसे से
अछूता वक्त तय करता है
अपने फासले
और बनाये रखता है
अपनी विश्वसनीयता
और पहिचान

******ढीठ लड़कियां******

कहाँ से आ जाती हैं
ये ढीठ लड़कियां
कभी पानी के बहाने
कभी नालिश के बहाने
बहुत ही उजड्ड है
यह लड़कियां
समझती नहीं संस्कारों को
थोड़ा बहुत होता तो चल जाता
पर बार बार आकर
प्रश्न पूंछती हैं
कुछ ऊल जुलूल से
जैसे प्रेम किसको समझे
धोखा किसको
कौन से कपड़े शालीन है
कौन से अशालीन
कैसे चलें ,कैसे बैठे ,कैसे बोले
क्या खाये क्या न खाए
कब बोले कब मौन रहे
आखिर कैसे जवाब दिया जा सकता है
इन बचकाने सवालों का
यह तो उफ !
वाली है बात
ढीठ लड़कियां
मांगने लगी हैं अपने अधिकार
करने लगी कोशिश
वह सब कुछ जानने की
जिसे अपनाकर प्राचीन काल से
आज तक हम करते आये हैं
उनके हकों का हरण
बात बात पर करती हैं
न्यायालय के आदेश की बात
आखिर कितनी ढीठ हो गई हैं
यह लड़कियां

Tuesday 23 October 2018

***** अतीत के ज्वालामुखी*****

खत्म होने का नाम ही
नहीं लेती
तुम्हारी यादें
जब भी चाहता हूँ
लिखना
कोरे कागद पर
स्मृतियों के कुछ लफ्ज
ठहर जाती हैं कलम
और ठिठक जाता है
हौसला
ताजा हो जाती हैं
विस्मृत हो चुकी
इबारते
भरने लगता है
ऊहापोह युक्त मन में
उमंगों का लावा
और बेताव हो उठता है
फटने को
वर्तमान में खोया हुआ
अतीत का ज्वालामुखी

Friday 12 October 2018

***** मुखर होने लगी है******

मुखर होते लगी है
सदियों से ओढी चुप्पियां
रात के घने अंधेरे में
ओढा दी गईं थी
सुबकती सिसकियों को
अभिमान था अपने पौरुष का
जिससे ढांक सकते हैं
रसूख की चादर से
खुद के कृत्य को
जिसे किसी भी तरह
नहीं कहा जा सकता
नैतिक
उन्हे खुद से भी अधिक
भरोसा था
अपनी बलवती सभ्यता पर
जिसने आदिम काल से
बख्श रखा है
अजेय शक्ति जिसके समक्ष
हमेशा से नतमस्तक होने को
विवश हैं स्त्रियां
रोने और बिसूरने की स्थिति
में प्रयोग किया जाता रहा है
कुलटा घोषित करने का भय
जिसकी आड़ में
हमेशा से फूलता और फलता रहा
स्त्री विमर्श का विटप
गली मुहल्ले राह चलते
प्रलोभनों की खेप के सहारे
घायल की जाती रहीं देवियां
समय बदल रहा
अपनी करवट
अब जवाब देना होगा
अहिल्याओ, सरस्वतियोंं,
सीताओं के स्थान पर
इन्द्रों,चन्द्रमाओं,गौतमों,ब्रहमाओं
और रामों को
अब वे बच नहीं सकते
नशे और द्यूत के नामों से
क्योंकि मुखर होने लगी हैं
सदियों से ओढी चुप्पियां
जो तुम्हारी चुनौतियों का
जवाब देने पर आमादा हैं
उन्हे और अधिक समय तक
रोक पाना
अब तनिक भी
नहीं रह गया है
तुम्हारे बस में
         प्रद्युम्न कुमार सिंह

***** वर्जनाओं के विरुद्ध******

वर्जनाओं के
विरुद्ध
तनी हुई मुट्ठियों में
अभी भी बची हुई है
इतनी सामर्थ्य
कि भर सके
तुम्हारे विरुद्ध
हुंकार
और दर्ज करा सके
अपना प्रतिरोध
यद्यपि तुम्हारी अकड़न को
यह स्वीकार नहीं होगा
बावजूद इसके
भिची हुई चबुरियां और
तनी हुई मुट्ठियां
कर देगी तुम्हारे विरुद्ध
इकबाल बुलन्दी का
जयघोष
तुम्हारी क्रूरताएं चाहकर भी
रोक पाने में होंगी
असफल
हक के लिए बढते हुए कदम
अब फैसला तुम्हारे
हाथ में है
कि बचे हुए समय में
जमीनदोज होती
आस्मिताएं बचाने का
करते हो सफल प्रयास
या फिर घुट - घुटकर
दम तोड़ने के लिए
छोड़ देना चाहते हो उन्हे ।
             प्रद्युम्न कुमार सिंह

***** हम तब्दील हो चुके है*****

हम तब्दील हो चुके हँ
खूंखार यांत्रिक
गिरोह मे
रक्षक से भक्षक
बन चुके हैं
अब हमारे शिकार
दुर्दान्त नहीं रहे
वरन् लक्ष्य बन चुके हैं
निरीह लोग
चाहकर भी मुमकिन नही
बदलना
क्योंकि अब हम इंसान
नहीं रहे
हमने अब  स्वीकृत कर लिया है
कायराना कमांड
और समय समय पर करते हैं
बाखूबी इसका प्रयोग
क्योंकि हम तब्दील हो चुके हैं
रिमोट संचालित यांत्रिक
मशीनी गिरोह में
जिसे जरूरत होती है मात्र
एक अदद विद्युत तरंगीय
संकेत की
          प्रद्युम्न कुमार सिंह

Wednesday 10 October 2018

**** सूरज की सुनहरी किरणों से पूर्व ****

सूरज की सुनहरी किरणों से
पूर्व ही
शुरू हो जाता हैं
पखेरूओं का कोलाहल
रंभाने लगती हैं
दुधारू गायें और उनके बछड़े
खेतो में जाने को
उत्सुक होने लगता है
कृषकवीर
और खुश हो जाती हैं
बूढी मांयें
डरावनी लम्बी रात्रि के
खत्म होने पर
चहकने लगते हैं
आंगन के चक्कर काटते
मासूम बच्चे
खुशी से फूलकर कुप्पा हो
उठती है
कोने में दुबकी बैठी
बिल्ली
सुनाई देने लगता है
एक ऐसा स्वर
जो हमेशा ही रात्रि के
मौन के पश्चात
सूबह होने पर
सुनाई देता है
व्यक्त में अव्यक्त को
समेटे हुए ।

Friday 5 October 2018

***** वर्जनाओं के विरुद्ध******

तुम्हारी वर्जनाओं के
विरुद्ध
तनी हुई मुट्ठियों में
अभी भी इतनी सामर्थ्य
बची है
कि तुम्हारे विरुद्ध भर सके
हुंकार
और दर्ज करा सके
अपना प्रतिरोध
यद्यपि तुम्हारी हेकड़ी को
यह स्वीकार नहीं
बावजूद इसके
भिची हुई चबुरियां और
तने हुए हाथ
तुम्हारे विरुद्ध कर देंगी
इकबाल बुलन्दी का
जयघोष
तुम्हारी क्रूरताएं भी
रोक नहीं सकती
हक के लिए बढते हुए
उनके कदम
अब फैसला तुम्हारे
हाथ में है
कि बचे हुए समय में
जमीनदोज होती
आस्मिताएं बचाने का
प्रयत्न करते हो
या फिर घुटकर
दम तोड़ने के लिए
छोड़ देना चाहते हो ।

Wednesday 3 October 2018

****बचा नहीं पाओगे *****

अब तुम्हे छोड़नी होगी
अपनी स्वामिभक्ति
तुम्हे फिर से फूकना होगा
अन्याय और षड़यन्त्र के विरूद्ध
संघर्ष का विगुल
तुम्हे फिर से परिभाषित करने होंगे
स्वामिभक्ति के हानि लाभ
तुम्हे हटानी होगी
चमकीले पोष्टरों से
खुद की नज़र
और देखनी होगी
मज़हवी आग में झुलसती
बेतरतीब दुनिया का अक्स
तुम्हे सीखना होगा
हकीकत और फरेब के बीच
अन्तर करना
तुम्हे समझनी होगी
नफ़रत और प्रेम के बीच की खाई
तुम्हे मिटाना होगा
नफ़रती आग
जिसमे झुलसकर तबाह
हो चुके हैं
तुम्हारे और हमारे घर
यदि तुम अब भी खामोश रहे
तो समझ लो
तुम्हारी ही संततियां नकार देगी तुम्हे
और तुम चाहकर भी
बचा नहीं पाओगे खुद को

Friday 14 September 2018

*****हिन्दी******

कोई कैसे समझ सकता है
एक दिन एक सप्ताह में
किसी भी भाषा का
वास्तविक स्वरूप
भाषा कोई रोबो नहीं
जिसे जरूरत होती है
मात्र एक कमांड की
आज हम भाषाओं के बीच
नफ़रत के बीज
बो रहे हैं
जिनका शिकार
हमारी भाषा भी होती है
बावजूद इसके एक भाषा है
जो आज भी
आकर्षित करती है
मुझे और मेरे देशवासियों को
आज भी वह दिखाती है
अपने अंदाज का कमाल
आज भी लोग खोजते हैं
लहना सिंह का अंदाज
वीर सिंह की दीवानगी
ममता का ममत्व
कोई क्यूं नहीं सोचता
कामरेड सुधीर सिंह की तरह
आलोचक उमाशंकर सिंह परमार की तरह
जवाहर जलज की तरह
कालीचरन नारायन की तरह
पी के की तरह
कुछ स्थापनाओं को
स्थापित करने की
भाषा मे नवीनता लाने का प्रयास
सम्भव हो सकता है
जैसे मायानगरी के हर्फ यद्यपि
उनकी कमाई के रूप में ही हैं
पर आप मानते है
और स्वीकार भी करते हैं
उन्हे उसी रूप
हक कभी खामोश रहने से
नहीं मिलता
भाषा सुविधा के विरुद्ध
चलती है नंगे पांव
सर्वहारा का हाथ थाम
भरती है हुंकार
क्योंकि वह मोहताज नही होती
माध्यमों की
वरन् वह शिशु सी निश्छल होती है
जिसने उसे चाहा
वह भी उसकी होती चली जाती है
जिन्दावाद,मुर्दावाद,
हिन्दी उत्थान - पतन के
ढकोसलों को छोड़
आगे बढती है
लग जाओ तुम भी
हिन्दी के लिए
अड़चनों की परवाह छोड़
कस लो कमर
हिन्दी खुद ब खुद
बढी मिलेगी
दो कदम आगे
            प्रद्युम्न कुमार सिंह

Wednesday 12 September 2018

*****मेलो का इतिहास*******

मेलों का अपना इतिहास रहा है
जो समय के साथ बनता
और बिंगड़ता रहा है
यादों के साथ शुरू होता है
बिछुड़न पर खत्म होता है
झूलों मिठाइयों के साथ
रंग जमाता है
और झूठ और लूट पर
खत्म होता है
खिलौनों संग उलझता है
स्मृतियों के आंगन में
नये चित्र सजते और संवरते है
ढोल नगारे की धुन में
थिरकते हैं
महावर लगे पांव
और डीजे संग झूमते हैं
आनन्द मनाते कदम
सत्य असत्य के बीच
कई सफेद चेहरों से
उतर जाता है उनका नकाब
क्योंकि मेला है जो मेलने से ही
बढ़ता और सुरक्षित होता है
यदि तुम्हे समझना है
मेले के रंग को
तो तुम्हे बनना होगा
मेले का ही एक अंग
और दिखना होगा मेले के
सरीखा चमकदार धोखा सा

Thursday 6 September 2018

******* यह कविता है*******

यह कविता है यारों  !
सच में
अमृत घोलती है
झूठ की पोल खोलती हैं
तारों रंग से
सजती और संवरती है
आकाश संग डोलती है
नीला पीला हरा और लाल
उसके संग मानों चार यार
भूल भुलैया जैसा उसका
घर आंगन
नदी की लहर सी बोलती है
भुज भुजंग संग उसका वैर
आम जनों में रस घोलती है
ये कविता है यारों
तथ्यों की अन्वेषी
सच की साथी
चेहरों से चेहरों को
खोलती है
अमृत रस घोलती
मेहनतकस मजदूरों की ये
संगनी
आग सी लपलपाती जिह्वा इसकी
धरती के पग चूमती है
जान सको तो जान लो
मर्म इसका धर्म इसका
यह कोई खैरात में मिलने वाली
वस्तु नही
नाको चने यह चबवाती है
पशुओं की भी
मनुज बनाती है
सच का हाथ पकड़
इत उत डोलती है

Sunday 2 September 2018

**** दूर ले जाता क्षितिज*****

दूर ले जाता क्षितिज
कोई उसे
ढूंढ रही जिसे
सुबह की धूप
गूंज रही
टनक टनक की ध्वनि
ओस बूंदों सी
पत्तों के ऊपर
टेढी मेढी तिरछी आड़ी
पगडंडियां
दूर तक ले जाती उसे
तम व्योम चीर
मुस्कान रश्मियों के साथ
हिम आच्छादित शिखरों पर
फूटती उमंगों की धवल रेख
दूर ले जाता क्षितिज
कोई उसे
गा रहा सुर में
आज भी सुरीला गीत कोई
नाद से आवाज तक
आज भी खोज रहा
कोई पथिक  
         प्रद्युम्न कुमार सिंह

Saturday 1 September 2018

***** अलग होने जैसा*****

सवालों के जवाब पर
जब दिखता है
लाल स्याही से लगाये गये
गोले का निशान
बदलने जाता है चेहरे का
स्वाभाविक  रंग
यद्यपि उन्हे कभी नही हो पाता
इसका एहसास
कैसे बदले थे ?
क्यूं बदले थे?
लाल निशान के साथ
चेहरे के भाव व रंग
साधारण समझकर जिनको
छोड़ दिया जाता है अक्सर
भूलने के लिए
फिर भी
वे भुला नहीं पाते उसको
या यूं कहें
बच्चे खुद को
नहीं अलगा पाते उससे
जब-जब आता सामने
गोले के युक्त लाल निशान
याद आ जाता है
सुर्ख लाल रंग
जो अब शामिल हो चुका है
जीवन के अभिन्न अंग के रूप में
जिससे अलग होना खुद से
अलग होना जैसा है ।

Sunday 26 August 2018

*****हाँ मैं बांदा हूँ*****

हाँ मैं बांदा हूं
चांद के साथ
और चांदमारी के साथ
मेरा नाता
कभी नही होती मेरी शाम
केन से मेरा रिश्ता प्यारा
कालिन्दी के थूल तट
लहर बर्तुल सा मैं सिमटा
रत्नाकर से बाल्मीकि
और रामबोला से
तुलसी बनाने की कला
मुझमे
केदार और बोधा
मेरे दो लाल
अक्खड़ता मेरा स्वभाव
पानीदारी है मेरी जग जाहिर
मुझमे सदा से रमते आये है
जोगी और भोगी
फिर भी मैं
बदला नहीं कभी
और बदलना मेरी फितरत को
मंजूर नहीं
आदि से लेकर आज तक
बह चुका है केन में
बहुत पानी
आज भी नही हुआ बूढा मैं
अक्षुण्य मेरी जवानी
मुझसे ही होकर
निकलती है
प्रदेश की राहें
और देश की मंजिलें
मुझे नज़र अंदाज करना
अपने आप को
नज़र अंदाज करने जैसा है
बांदा के वीराने से
आज भी उठती हैं
आवाजें
कराहती तरंगों संग केन
खनकती आवाजे नवाबों की
नवाब टैंक जिनका साक्षी
वीर शिवाजी की यादें
मानस में करती ताजा
बियावन वीराने मे
खोई है वस्तु अनेक
बावजूद इसके आज भी
बचा है आज भी
बहुत कुछ शेष
बदलने के जारी हैं
बदस्तूर प्रयास
देखती हैं नवाबों, रईसों
की भौंहे आज भी
तिर्यक दृष्टि
कहीं मिटाये जा रहे हैं
कहीं पुरावशेष
तो कहीं बसी जेहन की
यादें
फिर भी आज भी लहकते हैं
किशोरी साहू और नट के
आर्त नाद
नारायन,काली और उमा का
प्रतिरोध
बना हुआ है
एक पहेली आज
फटेहाल उन्नत विशाल
लेकर भाल ललकारता
गढ़ कलिंजर
व भूरागढ़ का दुर्ग विशाल
आते हैं जहाँ गुणलुब्ध
सुधीर सुजान
देखरेख करने विरासत की
रवीन्द्र महान
साथ देते जिनका ओमभारती
सदृश्य विद्वान
वृजेश नीरज, अजीत प्रियदर्शी
आलोचक योद्धा
साधते कलम का संधान
केशव जलज से
कलमकार करते सदा
कविता अरण्य में भ्रमण
केन का वह अविचल पथ
जिसे पर चलते थे कभी
पहरिया और कवि केदार
बीड़ी के कस भरता
छन्नू सारंगीसाज
लगता है जैसे वह है
कल की बात
बाल्मीकि,बोधा,तुलसी
महसूसते जहाँ
सर्वजन की दु:ख दर्द
तमसा मुरला नही
मात्र नदियां यहां की
जीवन की सजल  धारा़यें थी
सुधी जनों के अन्तरतम में
अविरल जो बहती थी
भूलता नही है वह
कैरा लोहार
टेढे से भी अक्खड़
लोहे को
कर देता था
तत्क्षण सीधा और सहज
जैसे हो पालतू वह चौवा
उसका
मानता हो उसकी जो
हर बात
यादों में बसते है
चित्रकूट के चारों धाम
घूमघाम करते थे
मनुज दनुज और देव
मिलती थी
पावन पर्ण कुटी में
शान्ति सौहार्द्र और मानवता की शिक्षा
घाम तात में तपते लोग
कभी नही छोड़ते
अपना धैर्य
शेरशाह से लेकर पेशवा बाजीराव
डगमगाया था जिनका धैर्य यही पर
फिर भी बांदा रहा
अलमस्त सदा
फर्क पड़ने के बावजूद
विचलित नही हुआ
गिरकर उठने की ताकत उसमे
जीवन में रस भरने को
सदा जागता है यह बांदा
बार बार कहता पीके
सहज सरल इसका जन

Sunday 19 August 2018

*****मांझी*****

हाँ वह मांझी ही
हो सकता है
जो बढते ज्वार के बीच भी
रखता है हौसला
और तय करता है
अकेले ही
अप्रत्याशित यात्रा
चलना तो दूर
वरन् देखना भी
होता है
रोंगटे खड़े कर देने वाला
फिर भी वह तय करता है
बढते दरिया के
फासले
उनके लिए जो
निहार रहे होते है
टकटकी लगाए हुए
मंजिलों की ओर
यह अनायास ही नही कर पाता वह
वरन् बचपन से लेकर
आज तक
उसने दरियाव को देखा है
और उससे गलबहियां रही हैं
उसकी
शायद इसीलिए वह नहीं
हिचकता
वरन् निभाता है अपना फर्ज
और साधता है
डगमगाते विश्वासों के बीच
सामंजस्य
वह लड़ता है सैलाब से
एक सच्चे अन्वेषी की तरह
खोजता है सुरक्षित मार्ग
वह दिखाता है
आने वाली पीढियो को
एक नई रोशनी
जो अक्सर थम जाती है
थकन और डर के कारण ।
हां वह मांझी ही हो सकता है
जिसे अपने प्राणों से अधिक
औरों के जान की हिफ़ाजत
प्रिय होती है

Wednesday 27 June 2018

**** बेलगाम घोड़े****

सत्ता के बेलगाम
घोड़े
रौदने लगे
जब सब कुछ
साथी खड़े हो जाओ
तानकर
भिंची हुई मुट्ठियां
क्योंकि तुम्हारी तनी हुई
मुट्ठियां ही
पर्याप्त होती ह
थामने के लिए
अश्वों की टापों को
इसलिए साथी जितना जल्दी
सम्भव हो सके
तुम तान लो
मुट्ठियां
जिससे साधे जा सके
लोकतन्त्र के ढहते पावे
और रोकी जा सके
गिरती अस्मिताएं

Sunday 22 April 2018

****शिक्षा के व्यापार****

लोक लुभाते मतवाले
जीवन के कुछ तार देखे ၊
रंगों के भीतर,
उभरते रंग हजार देखे
जगजीत जीवन की
किलकते कुलहार देखे ၊
पर्णकुटी अटपट,
तारनहार देखे
शिक्षक शिक्षण के बढते
व्यापार देखे
चिर उनींदी आँखों मे तिरते
स्वप्न हजार देखे ၊
मेेवा में सेेवा के बढते,
फलसार देखे
सूझ बूझ के अबूझ पर
उतरते शीश बार बार देखे ၊
कुलभूषण को
धूप दीप नैवेद्य से,
चढ़ते प्रसाद देखे
गुरु शिष्य के मध्य
वेतन के व्यवहार देखे
समय समय के अक्सर
खेत खलिहान देखे
ठेके के बढते सम्बन्धों बीच
शिक्षण बीमार देखे ၊
देश के कर्णधारों को
डूबते बीच मझधार देखे ।
शिक्षा के गिरते स्तर में
शिक्षक के व्यवहार देखे ।

Wednesday 21 March 2018

*****नही भरे जा सकते****

समकालीन कविता के स्तम्भ केदारनाथ सिह अलविदा -
नहीं भरे जा सकते
शून्य आयाम
नहीं ठहर सकते
गुजरे कल
नहीं लौट सकतीं
गर्म सांसे
नहीं आ सकते वापस
जाने वाले लोग
नहीं पलट सकते
नीरव में विलीन स्वर
बस यूँ ही
एक एक करके
दुनिया छोड़ चले
जाना है
रज से रूज तक
एक असीम शान्त स्वर
चिर परिचित
हंसी हंसता हैं
अपने ही अपने
संवेदन में
जो अभी भी रिक्त है
जिसे पूरित कर पाना
लगभग असम्भव है
.

***""रात कभी भी नही छोड़ती अंधेरे का साथ***

रात कभी भी नहीं छोड़ती
अंधेरे का साथ
कारण स्पष्ट है
रात्रि को रात्रि बनाता है
अंधेरा
क्योंकि उसकी
श्रीवृद्धि
उसी में निहित है
रात्रि का ही एक पड़ाव
होता है
प्रातःकाल
जिसमें रात्रि छोड़ने लगती है
अंधेरों का साथ
भ्रमरों के गुंजार के बहाने
खोजने लगती है
अलग आशियाना
और उषा की
किरण के साथ
खुद को परिवर्तित
कर देती है
दिन के सापेक्ष
जिससे बची रहें
उम्मीदें
और बचा रहे
अंधेरे का अस्तित्व ।
    प्रद्युम्न कुमार सिंह

Saturday 27 January 2018

****महानता का महन्त*****

सभ्य है
इसीलिए बर्बर हैं
असत्य को सत्य से
अधिक करते हैं
स्वीकार
इसीलिए
दिन बा दिन
उठता जा रहा है
भरोसा
सत्य और अहिंसा से
क्योंकि हमारी सहनशक्ति ने
बदल लिया है
अपना पाला
और जा टिकी है
असहनशीलता की शरण में
इसीलिए नफा नुकसान
उसे तुच्छ लगते हैं
उसे लगता है
उसके अतिरिक्त सभी
मूर्ख और डरपोक हैं
जिन्हे प्रतिवाद व प्रतिरोध से
लेना देना नहीं है
इसीलिए वे इतिहास को
बदलकर
बनाना चाहते हैं
भूगोल
जिसमें निरंकुशता
और आत्मश्लाधा 
पार कर दे
आतंक की सारी हदें
और घोषित किया जा सके
उन्हे महानता का महन्त
जिससे प्रशस्त हो सके
उनके पूजे जाने का मार्ग