ठंड के संत्रास में भी
हँस रहा था
एक बूढा
दिख रहा था
टनाटन लोहे सा
मानों मौत से
जूझने आया हो
उसकी हँंसती आंखे
कुछ कह रहीं थी
मौन भाषा में
ठीक से सुन नहीं पाया
शायद उनका इशारा
संसार की बेरूखी
एवं स्वार्थलिप्सा की ओर था
मै कुछ पूँछता
उससे पूर्व ही
गड़ चुकीं थीं
मुझ पर उसकी आंखे
शायद वह पूँछना चाहता था
मेरे अतिरिक्त इस खुले
आसमान के नीचे
तुम कैसे ?
मैं झेप गया
और कुछ नहीं पूँछ सका
शायद मेरा झेपना ही
मेरे प्रश्न का जवाब था ।
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