हंसत थे लाखों रंग
दुकानें सजी थीं
सजे थे करीने से
आलमारियों के खांचे
तलाश रहे थे लोग
रुबरू होने के बहाने
मुस्कुराहटों ने उलटे थे
अनगिनत स्वप्नों के
परत दर परत
अनदेखे पन्ने
कुछ खोये थे
किताबों के आवरणों के रंगों में
कुछ जीवन के पन्नों में
खंगाला जा रहा था
अतीत से
वर्तमान तक का सफ़र
और तलाशा जा रहा था
रुचियों का कैटेलाग
लाज़मी था कुछ
उथल पुथल का होना
सिसकियों के बीच दानवी
हंसी का आना
कुछ निभा रहे थे
औपचारिकताएं
मित्रों से किये गये वादों की
कुछ खोज रहे थे
सेल्फ़ियों के बहाने
रंगीन तितलियों के पर
यद्यपि ऐसे लोगों नहीं करते
किसी की भी परवाह
न ही रखते है किसी से
कोई रफ़्त जब्त
कुछ वास्तव में देख रहे थे
पुस्तकों का मोहक संसार
और उनके आचार व्यवहार
प्रकाशक भी गिरहकट की तरह
तैयार थे
काटने को भारी भरकम जेब
चल रहा था आरोप प्रत्यारोप का
कभी न खत्म होने वाला दौर
कुछ ठहाके अनायास गूंजे थे
मानो खिल उठा हो
बिजली का फूल
जहां तहां चल रहा था
बधाईयाँ का दौर
उड़ रही थीं
कुछ रसीदी टिकट सी
कागजों की चिंदियाँ
मानों दे रहीं हो गवाही
बाजार के उठने की
हाँ हाँ यह शंखनाद था
विश्व पुस्तक मेले के अवसान का
कुछ यादें पेवस्त हो रहीं थीं
दिमाग के सुरक्षित कोनों में
और तैयार कर रहीं थी
खुद को
आगामी तिथिक्रम की प्रतीक्षा के निमित्त
आज दिल्ली थोड़ी मायूस थी
किन्तु शीघ्र ही भुला देगी
सब कुछ
और खो जायेगी
एक अनाम शोर की
भीड़ में
जैसे हम सभी खो जाते हैं
हंसते रंगों की भीड़ में
प्रद्युम्न कुमार सिंह
Sunday, 20 January 2019
"हंसते रंगों की भीड़ "
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