Saturday 25 December 2021

कृषक पर आधारितगोलेन्द्र ग्यान के पेज पर प्रकाशित दो रचनाएं

45).
मैं किसान हूँ / प्रद्युम्न कुमार सिंह

मैं किसान हूँ
सदा उम्मीदों के 
बीज बोता हूँ
भूमि कैसी भी हो
पथरीली हो,
बंजर हो, 
ऊसर हो 
या फिर दलदली हो
मैं उस पर 
एक उम्मीद रोपता हूँ
बादलों की बेरूखी हो
या फिर अपनों की 
बेगैरियत
मैं खामोश रहते हुए
अपनी भूमि जोतता हूँ
हरियाली देख झूमता हूँ
नुकसान होते हुए 
देखकर भी
विचलन से दूर रह
आशाओं भरी 
उम्मीदो के सहारे 
जिन्दगी को जीता हूँ
साहब मैं एक किसान हूँ
जब तक मेरी फसलें 
रहती हैं असुरक्षित 
मैं चैन से नही सोता हूँ 
तूफान हो, 
ओले पड़े 
या फिर भीषण गर्मी की 
लुआर हो
मैं उद्यत रहता हूँ 
सदा उनसे जूझने के लिए
क्योंकि मैं बोता हूँ
धरती के सीने को चीरकर
उसे शस्य श्यामला 
बनाने वाले उन्नत बीजों को

46).
उस दिन / प्रद्युम्न कुमार सिंह

उस दिन
मैं देखता रहा था
तुम्हें इकटक
क्योंकि मुझे उम्मीद थी
तुम उठ आओगे
अचानक
अपने वियावन से
उभरते हुए दृश्य चित्रों की तरह
पर ऐसा नहीं
हो सका
क्योंकि तुम कोई 
दृश्य नहीं थे
जो उभर आते
आँखों की कोरों के बीच
अनायास

मैं प्रतीक्षा करता रहा था
बहुत क्षणों तक
कि तुम सुन सको
शायद मेरी आवाज में
बोले गये शब्दों को
पर तुम नहीं सुन सके
क्योंकि तुम कोई 
श्रव्ययन्त्र नहीं थे
जो सुनते बोले हुए 
शब्दों को
मेरी सोच और विश्वास
दोनो परिवर्तित हो
चुके थे जड़ में
जिनमे देखने और सुनने
की क्षमता पूरी तरह से 
खत्म हो चुकी थी

■■■★■■■

◆कविता-45,46

सादर आमंत्रण : कोई भी कवि किसान पर केंद्रित अपनी कविताएँ इस पेज़ पर साझा करने के लिए अपनी तस्वीर के साथ निम्नलिखित ईमेल या व्हाट्सएप नंबर पर भेज सकता है। 

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Monday 13 December 2021

यह आवश्यक तो नही

यह आवश्यक तो नही 
जिससे मुहब्बत हो 
उससे बयाँ ही की जाय
एक झलक भी बुन देती है 
हजार ताने बाने 
और एक कसक सताती रहती है
ओझल हो हो

ठगे जाते है

ठगे जाते हैं
शातिरों के हाथ सदैव से
मासूम लोग 
कभी नहीं कह पाते वे 
अपनी पीड़ा को
क्योंकि उन्हे विश्वास होता है
एक दिन समझ जायेंगे लोग उन्हे
और वे चुप रहते हैं

ठगे जाते हैं
शातिरों के हाथ सदैव से
मासूम लोग 
क्योंकि वे मानते हैं 
यह अन्तिम ठगी है
इसीलिए वे सह लेते हैं
उसे हंसते हुए
और आगे बढ़ जाते हैं
सकारात्मकता की प्रत्यासा में

ठगे जाते हैं
शातिरों के हाथ सदैव से
मासूम लोग 
क्योंकि उनको उम्मीद आशावान होती है
ढोये जाते रिश्तों में बची हुई
मानवीयता के प्रति
और वे सहज हो जाते हैं
आश्वस्तियों के सहारे 

ठगे जाते हैं
शातिरों के हाथ सदैव से
मासूम लोग 
फिर भी वे थामे रहते हैं अन्त तक 
धूमिल पड़ती पगडण्डियों की बाहें
क्योंकि उनका मन अब भी होता है
आइने जैसा साफ सुथरा
जिसमे आकर बाधाएं 
खुद ब खुद होती है शर्मिंदा
जबकि जश्न मनाता है 
ठग और उनका पूरा गिरोह 
अपनी खोखली जीत पर
जिसे बहुत कम ही लोग
पाते हैं समझ।

ठगे जाते हैं
शातिरों के हाथ सदैव से
मासूम लोग 
वे स्वीकार लेते हैं देर सबेर 
अपनी ठगी को
और चल पड़ते हैं 
अनाहत धारा सरीखे 
अप्रतिहत शक्ति के साथ
जबकि ठग और उनका कुनबा
भोगता है अपना द्वारा कृत 
कृत्यों का परिणाम
और चाहकर भी नहीं कह पाता
किसी से भी।

Sunday 7 November 2021

इतवार की सुबह

बिल्कुल !
अलग तरह की होती है
इतवार की सुबह
रोज की भागमभाग से मुक्त
यद्यपि इस दिन भी
सूरज निकलता है
फूल खिलते है
भौंरे गुनगुन करते हैं
फूलों पर तितलियाँ मड़राती है
पक्षी भी एक दरख्त से 
दूसरे दरख्त तक
अपने स्वर निकालते हुए
सहजता से
आते और जाते हैं
मैं देखता हूँ जब भी
खिलखिलाते हुए 
मासूम से बच्चों को
रोक नहीं पाता हूँ 
खुद को
सोचने लगता हूँ
काशः कभी न खत्म हो
यह कल्पनाओं की सुबह 
जो अभी अभी 
ओस कणों से धुलकर 
तरोताजा हो
खेलने को आई है
इन ठहठहाते बच्चों के साथ
जिसके आने की सूचना
नन्ही गिलहरियों के
छोटे छोटे बच्चे
उत्सुकता से दौड़ते हुए
खेलते हुए इन नौनिहालों को 
देना चाहते हैं
इसीलिए वे लगातार 
इधर से उधर 
लगाए हुए हैं दौड़
पर बच्चे मस्त हैं 
अपने आप में
वे ध्यान नहीं दे रहें हैं
उनकी ओर
पर मुझे खींच रहा है
उनका यह आकर्षण
जो मिलता जा रहा है 
धीरे धीरे
सुबह की खिलती हुई धूप में
इतवार की भाँति
बिल्कुल अलग तरह से

Sunday 10 October 2021

वे पहाड़ थे

वे पहाड़ जैसे ही थे 
प्रवाहित होती थी 
जिनसे असीम 
वेदनाओं को
सहेजे हुए 
निर्झरिणी सी नदियां
फूटते थे जिनसे
बहुत से झरनों के उत्स
सिंचित करती थीं जो 
आतृप्त मैदानों को
अपने संतृप्त जल से
नवजीवन का संचार करती थी
जंगलों के पौधों 
व जीव जन्तुओं के मध्य
उन्ही के साथ 
प्रेम के कच्चे धागों में 
बंधे हुए 
कष्टो और पीड़ाओं को 
परवाह न करते हुए
बहे चले आते थे
स्नेहसिक्त बन्धुओं की भाँति
कुछ बलुआ पत्थर
जो करते थे उन्हे रोकने के 
हर सम्भव प्रयास
और एकत्रित हो जाते थे
खुद को नन्हे नन्हे
कणों में विभक्त करके
किन्तु नदियो के थे
उससे भी बड़े उद्देश्य
पहुँचना चाहती थीं
जो हर उस जगह तक
आवश्यकता थी जहाँ पर उनकी
यद्यपि वे पहुँची भी
यथा सम्भव उन जगहों तक
और हरा भरा भी बनाया
किन्तु इसके बाद भी 
रह गये 
बहुत से स्थल 
उनके प्रेम से बंचित 
जो अब भी बने हुए हैं
पाषाणों से रुक्ष और कठोर ।

Monday 4 October 2021

खूँटियों में टंगे हुए लोग

लोग टंगे हुए हुए
खूंटियों में
धरती तक नहीं
पहुंच पाते उनके पाँव
न ही पहुँच पाती हैं
उनकी अपेक्षाएं
यदि उन तक पहुंचाने होते हैं
कोई संदेश
तो उन्हे उतारना पड़ता है
खूंटियों से
जो आसान नहीं होता है
इसीलिए तुम्हे बचना चाहिए
संदेशों व सम्भावनाओं से
तब ही तुम 
समझ सकते हो
खूंटी और धरती के बीच
छूटी हुई रिक्तता को
जो सीधे प्रभावित होती है
खूंटी में टंगे हुए 
लोगों के विचारों 
तथा भावनाओं से
तुम समझ सकते हो
पृथ्वी को 
जो स्पष्ट रूप से
टंगी रहती है सदैव
आश्वस्तियों की 
मज़बूती के साथ
खूंटियों मे टंगे हुए
लोगों की भाँति
सदैव तुम्हारे सामने
प्रश्न बढ रहे जितने
घट रहे उतने ही 
उनके जवाब
खूँटियों पर टँगे हुए 
आदमी
क्या खूंटियों में ही 
टँगे रहेंगे हमेशा के लिए
या फिर कभी 
उतरेंगे भी खूँटियों से

Sunday 19 September 2021

ये जो कंगूरे

ये जो कंगूरे 
इतरा रहे हैं
खुद के रंग ओ रुआब पर
वे तही जानते
अपनी खूबसूरती का राज
जो बनी हुई है
नींव की ईटों के समर्पण की 
प्रवृति पर
पर कंगूरो की गर्जना के स्वर 
आज भी कराते हैं एहसास
अधिक समर्पण हमेशा
सही नहीं होता
जैसा कि नींव की ईटों ने
कर रखा है
यदि बनी रहती उनकी भी ऐठन 
पहले जैसी तो
कंगूरों का अप्तित्व दिखता
हिलता डुलते पेण्डुलम की तरह
और उनकी अकड़ छोड़ जाती 
कब की उनका साथ 
जिसके भरोसे वे गाँठते है
अपना रुआब I

Thursday 16 September 2021

तुम्हारी आँखों में

तुम्हारी आँखों में तैरते हैं
बहुत से हसीन सपने
बहुत सी अनछुई स्मृतियाँ
बहुत से सहमें हुए एहसास
और सामाजिक सरोकारों से सम्बन्धित 
बहुत सम्भावनाएं
जो कुरेदते हैं
तुम्हारी चेतना और अन्तःकरण को
फिर भी तुम बोलते हो
नहीं फटकते सपने मेरे पास 
मेरी आंखों की पुतरियों में
नींद के अतिरिक्त नहीं होती
किसी वस्तु के लिए कोई जगह 
शायद तुम भूल जाते हो
तुम्हारा एक झूठ
घोषित कर देगा तुम्हारे चरित्र को 
दोयम दर्जे का

Monday 6 September 2021

यार तुम डरते हो

वे डरते हैं
शब्दो के तीखेपन से
जैसे डरता है
मेमना
डरता है भेड़िया
और डरता है 
बनराज
वन में बढ रही 
आवाजाही से
वृक्षो की कटान से
वीरान होते 
वन
गाद से खत्म होती 
नदी
विकास से आस्तित्व 
खोते पहाड़
कंकरीट के फैलते जंगलों से
उजड़ती धरती
वे भी डरते हैं
शब्दों के तीखेपन से

वे डरते हैं

वे डरते हैं
शब्दो के तीखेपन से
जैसे डरता है
मेमना
डरता है भेड़िया
और डरता है 
बनराज
वन में बढ रही 
आवाजाही से
वृक्षो की कटान से
वीरान होते 
वन
गाद से खत्म होती 
नदी
विकास से आस्तित्व 
खोते पहाड़
कंकरीट के फैलते जंगलों से
उजड़ती धरती
वे भी डरते हैं
शब्दों के तीखेपन से

Monday 30 August 2021

कवि तुम लिखो

कवि ।
तुम लिखो कविता
तोड़े जाते हुए नन्ही चिड़ियों के
मज़बूत डैनों के खिलाफ
तुम्हारे शब्द करे
मरहम-पट्टी
रिसते जख्मों की
तुम !
साधो छन्दों अलंकार से युक्त
सजीली भाषा के तीर
जिससे भेद सको 
मृत भूख के ढहते किले
तुम्हारे नाद बहा दें
सतत वाहनी नदी सी 
रसधार 
हे कवि !
लिखो मिल सके जिससे
किसी बेसहारा असहाय को
दृढ आधार
तुम लिखो दर्द के खिलाफ 
जिन्दा हो सके जिससे
मृत आंखों का पानी
रहनुमाई करती कविता
कवि ! 
तुम शब्दों की ध्वन्यात्मकता
के साथ 
साधो ऐसे संधान
अभाव में जीने को मजबूर 
बच्चाें की अनगूंज
तुम!
खोजो ऐसे हर्फ
पसीज सके जिससे कुलिश सा 
कठोर कलेजा
तुम्हारे प्रत्येक शब्द 
में हो एक कसक
कर्ज में डूबे
मजदूर व किसान के दर्द की
कवि ।
तुम्हारे शब्दों में हो एक ललकार
चेहरे की झुर्रियाँ के विरुद्ध 
तुम्हारी खामोश लफ़्ज 
भर दे
सूख चुके गालों में
सुर्ख लाल रंग 
कवि ! स्मरण रहे 
तुम्हारे शब्दों की
हुंकार जारी रहनी चाहिए
कविता के कविता होने तक ।

उम्र के साथ

उम्र के साथ !
गहरी होती जाती हैं
माथे में
चिन्ता की लकीरें
घटती जाती हैं
रिश्तों के बीच घुली
मिठास 
और बढ़ते चले जातें हैं
तन से मन के दरमियान
फासले
पनपने लगते हैं 
आशाओं के बीच 
निराशा के बहुत से भाव
घेर लेते हैं 
खुशियों का स्थान 
अवसाद
थमने लगती है
चाहत की पींगों की रफ्तार
बावजूद इसके मन करता है 
कि वह लगातार करे
अनाहत कोशिशें
समय के साथ तदात्म 
स्थापित करने की

Tuesday 3 August 2021

स्मृतियों में

काले काले बादल 
जब उमड़ घुमड़कर
कराते हैं रात भर अपनी
अमृतमयी बूँदों से
शीतलता का एहसास
झूम उठते हैं
मुरझाये हुए पौधों के चेहरे
खिल उठती हैं कलियाँ
झूम उठते हैं नव किसलय
मुझे याद आता है
अपना वह बचपन और वे दोस्त
निकल जाता था 
अल सुबह जिनके साथ
सुबह की नम व गीली मिट्टी में 
खेलने के लिए
रम्भाने लगते थे जब 
पालतू पशु
भर जाता था टर्र टर्र की 
बेनामी आवाज से
प्रकृति का आँगन
लरजने लगता था आकाश
गीले जेवड़े और गीले खूँटो में
चरपटाने लगते थे दुधारू जानवर
बाँध देते थे जिन्हे 
घर के बुर्जुग
गीले खूँटे से ढीलकर 
दूसरे कम गीले खूँटे पर 
तभी बछड़े के से साथ 
बाल्टी लेकर दूध दुहने 
आ जाती थी माँ
और दुह लेती थी सहजता के साथ
दोहनी भर का दूध
जिसे लेकर चले जाते थे
घर के दूसरे लोग
घर में उधम मचाते थे 
स्कूल जाने को उत्सुक 
छोटे बच्चे
बाडे का काम निबटाकर
स्नान ध्यान कर वापस लौटी माँ
आग डाल सुलगा देती थी चूल्हा
तभी फूँकनी चीमटे 
तथा तावे को लेकर आ जाती थी 
घर की छोटी बच्ची
और करने लगती थी
रसोई बनाने की जिद
बडे दुलार से उसे पुचकार 
लगाती थी माँ
आटे की नन्ही लोई देकर
उसे साध लेती थी माँ
इस तरह चलता रहता है
अनवरत यह क्रम
यद्यपि बदलती रहती हैं 
बारी बारी से समय की सभी ऋतुएं 
पर नहीं बदलता तो
स्मृतियों में सतत चलने 
वाला यह क्रम ।

Tuesday 4 May 2021

लोग मर रहे थे

लोग मर रहे थे हाँफते 
महामारी के प्रकोप से
वह हाँकता रहा
अपनी यश गाथा की 
किंवदन्तियां
थमती गई उखड़ती हुई 
तमाम सांसे
पर अलमस्त खोया रहा वह
अपने नकारेपन के मद
लाचार हो देखते रहे लोग
श्मशान घाटों के
धू धू जलती बेतरतीब लाशों के 
वीभत्स दृश्य
लेकिन वह परोसता रहा
संख्याओं के जादूई आकड़े
बढ़ती जा रहीं थीं 
लगातार जोर की आँधियां
बुझते जा रहे थे 
एक एक करके जलते हुए 
सभी चिराग
विलीन होता जा रहा 
धीरे धीरे गहन तम में
उजाले का आबाद शहर
बढ़ती जा रहीं थीं 
हमारे आसपास 
डरावनी आवाजों की 
सुगबुगाहाटें
बावजूद इसके कायम था
अब भी उस पर भरोसा 
इसी से वे उसे खोजते रहे 
जख्मी वेदनाओं के इर्द-गिर्द
पर वो तो व्यस्त था
निस्पृह साधकों सा 
खुद का हुनर निखारने में
वह प्रसन्न था अपनी
कलाबाजियों के भोड़े प्रदर्शन में
तथा हँस रहा था 
ठट्ठा मारकर हो रही मौतों पर
और हम बिवश व लाचार थे
अपना ही तमाशा देखने के लिए
यह कोई पहली दफ़ा 
नही हो रहा था 
कि हम दोष देते उसको
यह तो अब हो चुका था
उसकी आदतों में शुमार
इसीलिए बार बार कहने के बावजूद
वह तैयार नही था 
उसको बदलने के लिए।

Monday 19 April 2021

चालू मौत का खेल है

चारों ओर मातम है 
चालू मौत का खेल है
रैलियों में व्यस्त सुल्तान हैं
पल पल टूटती जा रहीं 
अपनों की सांस हैं
स्तब्ध प्रजाजन हैं
धड़ल्ले से चल रहा 
नफ़े नुकसान का कारोबार है
कीमत चुका रही
अबोध जनता है
समय के कार्णिको द्वारा
लिखे जा रहें मौत के दस्तावेज हैं
चल रहा झूठी सांत्वनाओं का 
कुत्सित खेल है
और खुश जिम्मेदार लोग हैं
वे गिरा देते हैं अपनी आँखों से
रैलियों के बीच अश्कों के दो बूंद
निज दुःखों को भूलकर गदगद हो 
चल पड़ते लोग हैं
संभालते हुए झण्डों का बोझ
सत्ता के विस्तार के लिए
राजा के साथ।

निःशब्द हूँ

निःशब्द हूँ
अचानक यूँ तुम्हारे चले जाने से
रंग बिरंगे फूलों से
इतराते थे अपनी शाखों पर
पर न जाने क्यों
तुम चले गये 
महकता हुआ आंगन
चहकता बचपन छोड़कर
सदा सदा के लिए

निःशब्द हूँ
यह कल की तो थी बात
जब तुमसे हुई थी 
फोन पर मेरी बात
और तुम हाँफ रहे थे
मेरे मना करने के बावजूद
तुम किये जा रहे थे 
अपने मन की बात
क्या तुम भूल गये?
वे सब बातें जो तुमने की थी मुझसे

निःशब्द हूँ
अचानक यूँ तुम्हारे चले जाने से
बतियाते थे तुम मुझसे  हमेशा
अपने दुःख और पीड़ाओं के बारे में
निश्चिंत होकर
तुम्हारे शब्दों में एक आक्रोश होता था
अपने मान और सम्मान के प्रति
जिसे रौंद दिया जाता था
कुछ जाहिल लोगों के द्वारा हमेशा

निःशब्द हूँ
तुम्हारी यातनाओं के साक्ष्यों को देखकर
जब किया जाता था तुम्हे
पग पग प्रताडित
और तुम काँप जाते थे भीतर तक
फिर भी प्रसन्नचित होकर
दुबारा से लग जाते थे 
कार्य की पूर्ति में
और सम्पन्न कर लौटते थे
विजयी मुस्कान के साथ

निःशब्द हूँ
तुम्हारी इहलीला की समाप्ति सुनकर
लोग पंक्तिबद्ध तो नहीं हो सके 
पर चलते रहेगें लगातार 
तुम्हारी ही खींची रेखाओं पर 
अनुगामियों की भाँति
जिससे हासिल किया जा सकेगा
एक दिन उनका विश्वास
जो हमेशा से करते रहे
तुम्हारी निष्ठा और ईमानदारी पर अविश्वास
एक आशा के साथ कि
तुम लौट आओगे फिर से
अपना मुकाम हासिल करके।

Thursday 15 April 2021

कोरोना भी

कोरोना भी
बाबू मोसाय हो गया है
जब चाहता है,
जहाँ चाहता है
आ धमकता है
और फैला देता है
डर का कभी न थमने वाला सिलसिला
क्योंकि वह जानता है
दहशत के अस्त्र का प्रभाव
होता है जो अचूक और अकाट्य
इसीलिए खात्मे की सभी 
सम्भावनाओं के बीच
एक बार फिर से लौट आया है
बेखौफ होकर
उसका इस प्रकार से
पुनः लौट आना 
देता है कई सम्भावनाओं जन्म 
जो खोलती हैं 
जिरह की बहुत सी गाँठों को
लगा दी गई थीं जो शेखी के नाम पर
हमारी और तुम्हारी 
जुबानों पर जबरिया
और हम हो गये थे 
उसके खौफ से एकदम मौन
आज फिर से लौट आया
बाबू मोशाय बन कर
कोहराम मचाने पूरे जहान

Thursday 28 January 2021

शुरुआत तुमने की

शुरुआत तुमने की थी
खत्म हम करेंगे
है दम तो ठोक ताल
आ जाओ मैदान में
हम धरती को हरा भरा करने वाले
नहीं डरा सकते हमे तुम 
बन्दूकों से 
गर गिरा कतरा खून का हमारे
तो समझ लेना
आ जायेगा जलजला
नहीं बचा पायेंगे तुझे
यमराज भी इस कहर से
चल पड़ा किसान यदि सरहद से
तो क्या होगा तुम्हारा
संगीनों के साये में सोने वालों
जो दे सकता है 
भूख प्यास को भी मात
तुम क्या उसे मारोगे
यदि बनाना जानते हैं हम
तो बिगाड़ना भी आता है हमे
हम वो नहीं डरा जिसे तुम
भेड़िये का डर दिखाकर
याद कर लो ज़रा फिर से 
अपना इतिहास पुराना
तानाशाहों के हुए हस्र कैसे
हो जायेगा एहसास तुम्हे इसका
कुछ स्वार्थ में लिपटे
कुछ भुजंगों के बल पर 
जो तुम भूल रहे हो
तो याद रखना तुम 
विषधर चाहे जितना हो विषधारी
धरतीपुत्र सदा से रौंदता रहा हैं
उसका फुफकार मारते फन को
जिस दिन आ गया अपनी रवानी पर
क्या आंधी,क्या तूफान, 
क्या समुद्र, क्या पहाड़
रोक पायेंगे उसे

Saturday 23 January 2021

निस्सीम प्रेम

जैसे सूर्य नहीं होता है
कभी भी उजाले के विरुद्ध
चाँद भी नहीं होता
कभी भी प्रकाश से विमुख 
वैसे ही यह भी सच है
हम नहीं मिले कभी भी 
एक दूसरे से
न ही कभी कोई बात ही की
बावजूद इसके दिल में 
आज भी मौजूद हैं
उसके गीतों की सुरीली आवाज 
और उनकी गमक
जो गूंज पड़ते थे
अनायास ही धरती एवं आकाश के बीच
तेज रोशनी के सरीखे
जिसमें चुंधिया जाती थीं 
आकाश की आँखे
पथ से बिचलित हो जाता था
स्वतः ही उसका जादुई सम्मोहन
जिससे उजागर हो जाता का
धरती और आकाश के 
निस्सीम प्रेम का तिलस्मी अंदाज ।

Saturday 2 January 2021

हिसाब

दैनिक दिनचर्या के बीच
भागमभाग से दूर
ज़रा तुम सोचो 
ठिठुरते दिनो के बारे में
जो प्रत्येक सुबह आ धमकते है
हमारे समक्ष
नई उमंगों के साथ
दुःख के बाद आये सुख की तरह

सर्द ठिठुरन से ठिठुरती 
वह कमेरा स्त्री
जो हर सुबह आकर बैठती है
अपने दुधमुहे बच्चे के साथ
हाथ में थामे हुए छीनी और हथौड़ी
कुछ बासी बचे हुए
भात एवं रोटियों का नाश्ता कर
तराश रही है 
अनगढ़ पत्थरों में देवत्व को

गुनगुनी धूप से होकर सुर्ख लाल
सुनती है रास्तों की पदचाप
और कुछ आवारा किस्म के 
लोगों की बदजुबानी
एवं तन का निरीक्षण करती
बदनियति में पूरी तरह से 
धंसी हुई निगाहें
बावजूद इसके वह जुटी हुई है
जहान को फिर से सुन्दर
अपने मन की तरह सुन्दर बनाने में

सर्द के कम्पन्न दे रहे थे उसे संत्रास
जिससे बचने के लिए 
नहीं लगा था वहाँ पर कोई अलाव
घंटियों से लगातार बज रहे थे
कम्पित उसके दाँत
जिन्हे शान्त करने में अक्षम था
दुशाले का ताप
मूकदर्शक बना देख रहा था
कस्बे का मुख्य चौराहा

दर्ज हो रहा समय के रजिस्टर में
बीते वर्ष का पूरा लेखा जोखा
जिसमे कहीं पर नहीं था जिक्र
उस मजदूरन का 
जिसने ले रखा था
दुनिया को खूबसूरत बनाने का व्रत
जुटाये हुए अपना पूरा उत्साह
शीघ्र खत्म करने को
बेताब था समय का कार्णिक
जबकि एक कवि जुटा हुआ था
दर्ज करने मे
समय का दर्दनाक हादसा
जिसके अधूरा रह जाता 
बीते हुए समय का हिसाब किताब I