Sunday 19 September 2021

ये जो कंगूरे

ये जो कंगूरे 
इतरा रहे हैं
खुद के रंग ओ रुआब पर
वे तही जानते
अपनी खूबसूरती का राज
जो बनी हुई है
नींव की ईटों के समर्पण की 
प्रवृति पर
पर कंगूरो की गर्जना के स्वर 
आज भी कराते हैं एहसास
अधिक समर्पण हमेशा
सही नहीं होता
जैसा कि नींव की ईटों ने
कर रखा है
यदि बनी रहती उनकी भी ऐठन 
पहले जैसी तो
कंगूरों का अप्तित्व दिखता
हिलता डुलते पेण्डुलम की तरह
और उनकी अकड़ छोड़ जाती 
कब की उनका साथ 
जिसके भरोसे वे गाँठते है
अपना रुआब I

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