समकालीन कविता के स्तम्भ केदारनाथ सिह अलविदा -
नहीं भरे जा सकते
शून्य आयाम
नहीं ठहर सकते
गुजरे कल
नहीं लौट सकतीं
गर्म सांसे
नहीं आ सकते वापस
जाने वाले लोग
नहीं पलट सकते
नीरव में विलीन स्वर
बस यूँ ही
एक एक करके
दुनिया छोड़ चले
जाना है
रज से रूज तक
एक असीम शान्त स्वर
चिर परिचित
हंसी हंसता हैं
अपने ही अपने
संवेदन में
जो अभी भी रिक्त है
जिसे पूरित कर पाना
लगभग असम्भव है
.
Wednesday 21 March 2018
*****नही भरे जा सकते****
***""रात कभी भी नही छोड़ती अंधेरे का साथ***
रात कभी भी नहीं छोड़ती
अंधेरे का साथ
कारण स्पष्ट है
रात्रि को रात्रि बनाता है
अंधेरा
क्योंकि उसकी
श्रीवृद्धि
उसी में निहित है
रात्रि का ही एक पड़ाव
होता है
प्रातःकाल
जिसमें रात्रि छोड़ने लगती है
अंधेरों का साथ
भ्रमरों के गुंजार के बहाने
खोजने लगती है
अलग आशियाना
और उषा की
किरण के साथ
खुद को परिवर्तित
कर देती है
दिन के सापेक्ष
जिससे बची रहें
उम्मीदें
और बचा रहे
अंधेरे का अस्तित्व ।
प्रद्युम्न कुमार सिंह
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