Saturday 31 December 2016

****रंगमंच सा सज चुके हैं हाट****

रंगमंच सा सज चुके हैं
हाट
उत्सुक दिखते ता-था -थैया करने को
सरोकार व स्वार्थ की साजिशें
संयम खो देते अचबक के बीच
विवश अधिकार
पिघलना चाहती है
रिश्तों की तासीर
चाशनी की मिठास के अनुरूप
और बच जाता रिश्तों का वजूद
एक बार पुनः टूट की परिणति से
और बच जाता है
पुनः रिश्तों का आपसी
विश्वास व सौहार्द्र

Tuesday 27 December 2016

****आखर का स्वरूप****

आखर ढलने से लेकर
आखर मिटने तक
एक सम्भावना रहती है
बरकरार
अक्षरों के साझी विरासत की
और वह लगातार बनती
बिगड़ती रहती है
इसी के साथ ऊंच-नीच
अमीर -गरीब,जाति-पाति,
धर्म-अधर्म, पाप - पुण्य
का भेद भी बनता और बिगड़ता
रहता है
और इसी बनाव बिगाड़ के साथ
शब्द धारण करता है
एक नये आखर का स्वरूप

Saturday 24 December 2016

****एकान्त में झांकती****

लड़की जब अपने एकान्त में
झांकती है
उसे दिखाई पड़ती हैं
बहुत सी जानी पाहिचानी
धूमिल रूहें
जिनमें वह खोजती है
अपनी ही खोई हुई रुह
और खो जाती है
अपने ही खोये वजूद में
वह बार बार करती है
प्रयत्न
अपने वजूद से निकलने का
फिर भी वह निकलने में रहती है
असफल
क्योंकि लड़की और उसका वजूद
मिलकर हो जाते है एक
जिनमें से एक को अलग करना
दूसरे को खत्म कर देना है

Monday 19 December 2016

*****अपनी बारी के इंतजार में*****

मुस्किलों के मध्य
अभी जिन्दा है उसका वजूद
रेत के पेट
खोजता वह कोहिनूर
पेट पर तन्त्र की मार सह
सूखता तन झाँई साथ
घिसट घिसट चलता वह
समाधान की चाह लिए
छोड़कर सभी काम धाम
लगा है लम्बी कतार
कोई छह इंची लाल कार्ड
ऊंची है जिसकी धोती
खींच खांच फिट करने की
भिड़ा रहा जुगत
जिद है उसकी
कतार माप की
इसीलिए बेवजह ही सही
खड़ा है वह
अपनी बारी के इंतजार में

Thursday 15 December 2016

**"""प्रात केस्वप्न सा****

भोर के उजास में
कंदील सा लटका चांद
भटकते राहगीरों सा
दे रहा था दस्तक
तोरण द्वार पर कनेर के
गुल्मों सा
चकइठ बदन
पवन की रुक रुक
बलैया लेता
अंजाने राग में अनाम
विहग का
सुरीला स्वर सुन कर जिसे
करवट बदलती रात्रि
पत्तों पर विश्राम करती
भोर के शबनम की
मोती सी बूंदे
सुंदर ,सौम्य बकुल और
ढाक के
पुष्पों से सुसज्जित धरा
अलसाई भोर में कलियों को
निहारती
भौंरो की ललचाई असंख्य
अजनबी आँखे
लजाती प्रकृति सा
बीतता उसाे जीवन
प्रात के स्वप्न सा

Wednesday 14 December 2016

****हत्याओं का कारवां*****

एक के बाद एक
हत्याओं का कारवां
उधड़ती परतों सा
बढता गया
सूखते गये बहते जख्म के
कतरे
बढ रहा था एक तरफ
मातम का आलम
और एक तरफ निर्लज्ज
हंसी के ठहाके
देख रहा था समय भी
स्तब्ध हुआ सा
मातम और हंसी के
दरम्यान खिचे पालों की
हकीकत
जिन्हे बताया जा रहा था
एक को दूसरे से श्रेष्ठ
अपने अपने गोल बनाने की
तैयारियां क्रम जोरों पर था
काश ! दोनो समझ पाते
एक दूसरे की विवशताएं
और समय का तकाजा

Monday 12 December 2016

****अंधेरे के खिलाफ

*****अंधेरे के खिलाफ*****
यह सन्नाटा जो
पसरा रहा है
धरती के ओर से
छोर तक
विराम दे रहा है
आकांक्षाओं अपेक्षाओं को
दिन के सघन वियावन के
बीच
घोल रहा है चुपके से
कुछ हसीन ख्वाब
जो देखे जा सकते हैं
सघन अंधेरे के साये में
अंधेरे में खुलते
रोशनदान
डरे सहमे स्वप्नों को
हौसला दे रहा है
अंधेरे में
अंधेरे के खिलाफ

Wednesday 7 December 2016

संभावनाओं के बीच

संभावनाओं के बीच
इतिहास के पन्नों में
खोजी जायेंगी
आस्थियां
जो खो गई है
समय के धुंधलके के
साथ
स्मृतियों के धूमिल पड़ने पर भी
वे खोजी जायेंगी
और घोषित की जायेगी
उनकी अलग अलग पृष्ठभूमियां
अलापे जायेगे बहुत से
अनाम राग
जो अभी निर्मित होने के लिये
हो रहे हैं तैयार
और फिर से उनमे
छुप जायेगा पुराना राग
जिसके लिए  खोज सी होंगी
संभावनाये

Monday 5 December 2016

******तुम्हारी रीति तुम्हारी नीति******

तुम्हारी रीति तुम्हारी नीति
बना गई
शीत को भी पंगु
क्योंकि रीति और शीत का             
छत्तीस का आकड़ा
जीवन की दशवन्ती में
चौखट की चीख
दन्त हो गये शूल
हैं जो सीधे खड़े
तुम्हारी रीति तुम्हारी नीति
बना गई
शीत को भी पंगु
उशीष पैतान का
जैसे नाता
रहते पास सदा
तुम चीन्हो उनके
भेद
वे खुद ही कर देगे
उसमेे छेद
उनका हर्ष और उनका रोदन
विषम नही सम है सम्बोधन

Tuesday 29 November 2016

*****वह जानते हैं*****

वह जानते हैं
बाखूबी
अपना कार्य करना
उनके हाथों का रुखापन
गालों की झुर्रिया
और तन का जर्जरापन
एवं बालों का सन सा
सफेद होना
यूँ ही नहीं है
वरन् अनवरत जिम्मेदारियों के
संवहन का परिणाम हैं
आज जिस अन्न को खाकर
गर्व से हम करते हैं
चौड़ा सीना
वह कुछ और नहीं है
बल्कि उसके श्रम बिन्दुओं का
संघनित रूप है
जो श्वेद बिन्दुओ के रूप में
मोती सी चिलचिलाती धूप में
उसके तन से फूटती हैं |

*****तुम कहते हो चुप रहूं*****

तुम कहते हो
चुप रहूं
मेरे बोलने से खटती है
देशभक्ति
जो भी करो तुम
मूक दर्शक बन
मात्र श्रोता बन
बैठा रहूं
यदि बोलना भी चाहूं
तो तुम्हारी भक्ति के
कसीदों में बोलूं
करीनों सा उन्हे
सजाऊं
जिन्हे तुमने तैयार
किये हैं
मेरी मौत के समान के
रुप में
आखिर यह सब जानते हुए भी
तेरे पक्ष में कैसे बोलूं
कैसे खुद की
हत्या जैसा
जघन्य अपराध
अपने ही हाथों से
कर लूं

****कहन शैली की अनोखी अदा के साथ*****

कहन शैली की
अनोखी अदा के साथ
तुम बड़ी आसानी से
झुठला देते हो
अपनी ही कही बात
और अपने ही कद को
कर लेते हो लघु
शायद तुम भूल गये हो
जनता देवता है
जो देती है
तुम्हे उड़ने की शक्ति
इतराने की सामर्थ्य
किन्तु नही देती है कूबत
तानाशाह बनने की
नही देती इजाजत
जज़बातों से खेलने की
और नहीं देती अधिकार
गाढे की कमाई लुटाने की
वह उम्मीद करती है
उसका तन मन धन
सुरक्षित रहे ।
और तुम हो
करते हो प्रयास
कहन की अदा से उसे ही
झुठलाने का

Sunday 27 November 2016

****रात का घना अँधेरा****

रात का घना अंधेरा
स्याह चेहरे के साध
सामने जब हो जाता है
खड़ा
बढने लगता है डर
सियारों और ऊदविलावों की
आवाज के बीच
झांकने लगते हैं
बहुत से अनजाने
अनपहिचाने चेहरे
जिन्हें पहले कभी
देखा था
याद नहीं आ रहा ठीक से
फिर भी यह एहसास होता  है
पहले भी कभी मुलाकात
हो चुकी है इनसे
ये डरे सहमे लोग
जिनकी हड्डिया ही
अब शेष हैं
बिगड़ चुकी है पूरी तरह से
उनके चेहरों की रूहत
इन सब के बावजूद
अभी भी उनके अंदर
शेष है
एक जिजीविषा
जिन्दा रहने की
और जीवित है
संघर्ष का एक दरिया
जो अब भी कर रहा है
प्रतिरोध
सियारों और बिडालों की
की डरावनी आवाजों का ।

Saturday 26 November 2016

*****वे सपने बेचते हैं*****

वे बेचते है सपने
खत्म होते लम्हों के
दम तोड़ती आशाओं के
राफ्ता राफ्ता रेंगती
जिन्दगी के
वे बेचते हैं सपने
अपने पराये के
छुआछूत के अभिशाप के
अमीरी गरीबी के अन्तर के
कुआँ और खाई के
दुःख और सुख के
वे बेचते हैं सपने
अपने ही लाभ के
जिससे तुम्हे दिया जा सके
पुनः पुनः धोखा
और उलझाया जा सके
मायावी उलझन में
शायद तुम समझ सको कभी
मेरी बात को
क्योंकि सपने होते ही हैं
सिर्फ देखने के
अनुभव करने के
न कि हासिल करने के

Wednesday 23 November 2016

*****नीली फ्रांक वाली लड़की*****

नीली फ्रांक वाली
लड़की एक
खिलखिलाती धूप सी
झांक रही थी
वातायनों से बार बार
बच गया हो जैसे कोई
नवल पत्ता
आखिरी अवशेष
रह गया जो झड़ने से
पतझर में शेष
करता हो जैसे अब भी
इंतजार वह
खुद की बारी का
धूप के महीन
कतरन सी
चिलक रही वह
शाख के बीच
भटके राही सा
अलमस्त अटका
उसके पथ का रथ
चिपका हो जैसे
मकड़ी के जालों सा
दीवारों का जर्जरपन
टूट चुकी है उसके ख्वाबों की
पगडंडी
स्वर विश्रंखलित हुये
राहों की उसके
भग्न हुये जाग्रित उसके
स्वप्न
भारित यात्राओं के फूल
दे रहे उसके मन को शूल
विचलित हुआ है मन
उसका आज
पर आशाओं के हरसिंगार
खिले
ठोकरों से मरहम ले
खिल उठे जीवन के राग
करते थे वे जीवन में
सुख का संचार

Thursday 17 November 2016

*****ये जो धतूरे हैं****

ये जो धतूरे हैं
चाहते हैं कुछ कहना
पर वे नही चाहते
सुनना
न ही चाहते हैं
शरीक होना
इनकी खुशी के
पलों में
न ही गम के
आंसुओं में
पर वे चाहते है
इनकी सुन्दरता को
नकारना
और अपनी मनोकामना
पूर्ण करना
हम नही चाहते
दूसरे भी हो सकें
लाभांवित इनसे

Wednesday 16 November 2016

****पोथियों के बीच से****

पोथियों के बीच से
निकलते शब्द
शोर नहीं करते
वे खामोशी से कह
जाते है
बड़ी बात
और समझने वाले
समझते है
पोथियो के शब्द
विद्रोह नहीं करते
जनाब
जरा गौर से तो
देखो
ये शब्द खामोश तो
होते हैं
पर वेजुवान नहीं होते
और इनकी यही खामोशी
तोड़ जाती है
सूरमाओं का अदम्य
साहस
प्रेयसियों के प्रेमपाश
और तोड़ जातें हैं
जर्जर स्वाभिमान की
मजबूत बेड़ियाँ
और दिखा देते है
अपनी खामोश ताकत का
तर्जुबा

Tuesday 15 November 2016

*****सौदागरों के शब्द*****

सौदागरों के शब्द
बुनते हैं
भाषाओं के मखमली जाल
जिसे
महसूसा जा सकता है
क्षण के आखिरी पड़ाव तक
और उस उलझाव में
किया जा सकता है
बिना किसी लाव लश्गर के
बात करने का
तकल्लुस
बजाये जा सकते है
बेसुरे राग
उड़ाये जा सकतें हैं फूलों से
वफादार  मक्खियों के झुण्ड
जिन्होने चूसकर
पुष्प रस
तोड़ दी
सारी सीमाएं
अपने मक्खी होने की
सौदागरों के शब्द
बुनते हैं
भाषाओं के मखमली
जाल

Monday 14 November 2016

****बदहवास रुक्के****

बदहवास रुक्के
आबाद हुक्के
खुश होने को
सर अपने अभी भी
कुछ बाल हैं
क्योकि आज भी
गंजों के सर
ताज है
चाहत है अचरज
भरी
शौतन सी सामने
खड़ी
ग्वार बाजरे की
बात चली
भूतों की आवाज
मिली
माखन रोटी की
हाट सजी
ताली दै दै जे
भाजै
सोई सच्चा पूत
कहावै
अपनो को शीतलता
बांटे
औरन को ड्योढी
पर बांधै
तंत्र जंत्र सब कर
भय का भूत
चढावै
ऐसा कब तलक चलेगा
भाई
तब तक जब तक
मरै न
कलुवा की माई

Wednesday 9 November 2016

*****भूत के वर्तमान से*****

बार-बार बोलना
बार-बार तोलना
बार-बार मोलना
अच्छा नहीं होता
यह ढोर डंगर सा
मोलना तोलना और
बोलना
फितरत बन गई है
शायद
मिटाना होगा
हाँ मिटाना होगा
गढने होंगे मानवता के
नये मान
जीवन और जंग की
बात
परिभाषित करनी
होगी फिर से
परिभाषायें
तभी जीती जा
सकती है
शर्म और वेहयायी
और तभी लगाई जा
सकती है
शर्त
भूत के वर्तमान से

Monday 7 November 2016

*****रात के आखिरी पहर में*****

रात के आखिरी
पहर में
कलम दवात लेकर
तुम लिख रहे हो
आक्रोश
अंधेरे के विरुद्ध
तुम शायद दुनिया के
पहले इंसान हो
जो सोचते हो कि
अंधेरे में लिखे तुम्हारे
शब्द
तुम्हे अंधेरे से लड़ने का
हौसला देंगे
और एक दिन तुम
जीत जाओगे
अंधेरेे में अंधेरेे से

*****कवि तुम इतना डरे हुये क्यों हो ?*****

कवि तुम इतना डरे हुए
क्यों हो ?
कही तुमने जुर्म के
खिलाफ
कविता तो नहीं
लिख दी
कही भदेश भाषा के
अनगढ़ शब्दों तो नहीं
पिरो दिये
जो सारे गिद्ध
तुम्हे नोच खाने को
उतावले हैं
पर कवि तुम डरना
नहीं
इन बेइमान गिद्धो से
आज तक इन्होंने ही
रोक रखी थी
मानव बनने की
राह
और जब तुम जैसा
निर्भीक कवि
इन्हे चुनौती दे रहा है
ये डराने के सारे
भोथरे
उपाय कर रहे हैं

*****तुम्हारे शहर में *****

तुम्हारे शहर में
शब्दों ने मेरे
बगावत कर दी
साथ चलने को कहा
तो अदावत कर ली
तुम्हारे शहर में
शब्दों ने मेरे
बगावत कर दी
निकली थी जगहें कुछ
परिचित सी
सुकूं मिला था
रूह को थोड़ा
मगर शब्दों की
बेवफाई में
दूर होती गईं वे
तुम्हारे शहर में
शब्दों ने मेरे
बगावत कर दी

गुलमोहर का फूलना अकस्मात नहीं था न ही प्रकृति का कोई वरदान था बाल्कि उसका फूलना आक्रोश था उन्मादी सूर्य के प्रति एक दृढ अवलम्ब था आशा की डूबती किरण के प्रति उसका फूलना तपिस से दुलकते आंसुओं के प्रति एक शांत्वना थी गुलमोहर का फुलना अकस्मात नहीं था बल्कि कोयल के राग का प्रेम आलाप था जो कौओं की हंसी के विरुद्ध एक उद्घोस था जो हर युद्ध की शुरुआत से पूर्व द्वारपालो द्वारा बजाया जाता है

*****पोथियों के बीच से निकलते शब्द*****

पोथियों के बीच से
निकलते शब्द
शोर नहीं करते
वे अपनी बात बड़ी
खामोशी से
कह जाते है
और समझने वाले
समझते है
पोथियो के शब्द
जो विद्रोह करते !
जनाब
जरा गौर से तो देखो
ये शब्द खामोश तो
होते हैं
पर वेजुवान नहीं होते
और उनकी यही खामोशी
तोड़ जाती है
सूरमाओं का साहस
प्रेयसियों के प्रेमपाश
और तोड़ जाती है
स्वाभिमान की जर्जर
बेड़ियाँ
और दिखा देती है
अपनी खामोश ताकत का
तर्जुबा

Saturday 5 November 2016

*****तुम हार रहे थे****

तुम हार रहे थे
पर तुम्हे गुमान था
शाख पर उलटे लटके
चमगादड़ो सा
जिन्हे न अपनी
परवाह होती है
न ही तुम्हारी
उन्हे गर्व होता है
अपने घुग्घू होने का
अपने मेहमानों का
जो आ जाते हैं
समय की हड़बड़ी में
जल्दी
और उनकी ही शाख पर
जल्द ही
उल्टा लटक
गुनगुनायेंगे
सांझ का गीत
और यह तब तक
जब तक भिंसार की
आहट न मिलेगी

Monday 31 October 2016

****उर पर आलोक आडोलित****

उर पर आलोक अडोलित
चीर तम का सीना
ठहर जाती हैं
स्मृति की लाड़ियां
पल दो चार
चीख उठता है
दर्द
फिर से
खुद की रव में
ठहर गया हो
मानो क्षण कोई
प्राचीन
दिख रहा घना अंधेरा
द्वार पर आज भी
काश आकर देगी
सम्बल
किरण कोई
बुझते मन के
चराग को

Thursday 27 October 2016

रात का गहरापन

रात का गहरापन
गुनगुना रहा था कानों में
जिन्दगी की कुछ रातों की
खामोश बाते
जो खप चुकी है
शोर मचाये बिना
दर्ज नहीं है जिनका
कोई लेखा जोखा
दुनिया के
बही खातों में
फिर भी !
उनका सुर्ख अन्दाज
बनेगा गवाह
हर उस पल
जो मददगार है
जीवन को महकाने में
गवाह है
हर उस शय का
जो डरा हुआ है
अपने ही साये के
स्यापे से
रात की खामोशी के
साथ
खुद भी हो जाता है
खामोश
रात का गहरापन
जैसे जैसे गहरायेगा
पूरा जहान मानो उसके
गम में शरीक हो
रहा होगा  |

Saturday 22 October 2016

लिबास में छिपे हैं

लिबास में छिपे हैं
तुम्हारे प्रश्नों के जवाब
तुम्हारा कार्य
तुम्हारा व्यवहार
तुम्हारी आत्मीयता
तुम्हारे सदाचरण
यदि तुम सच में
खोजना चाहते हो
प्रश्नों के जवाब
तो तुम्हे प्रवेश
करना होगा
लिवास के भड़कीले
दरवाजों की
डेहरी के पार
और जाननी होगी
लिवास के पीछे की
गलीच सच्चाई