भोर के उजास में
कंदील सा लटका चांद
भटकते राहगीरों सा
दे रहा था दस्तक
तोरण द्वार पर कनेर के
गुल्मों सा
चकइठ बदन
पवन की रुक रुक
बलैया लेता
अंजाने राग में अनाम
विहग का
सुरीला स्वर सुन कर जिसे
करवट बदलती रात्रि
पत्तों पर विश्राम करती
भोर के शबनम की
मोती सी बूंदे
सुंदर ,सौम्य बकुल और
ढाक के
पुष्पों से सुसज्जित धरा
अलसाई भोर में कलियों को
निहारती
भौंरो की ललचाई असंख्य
अजनबी आँखे
लजाती प्रकृति सा
बीतता उसाे जीवन
प्रात के स्वप्न सा
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