Monday 17 January 2022

शोषक

शोषक शोषित 
जग के भाग दो 
नींव खड़ी अस्थि-पंजर के सिर
कांकर पाथर सा 
उसको खरीदता मनुष्य
सहज मूल्य             
मन में उठती बार बार  
कहानी उसकी एक
सुख दु:ख सहता
निज फौलाद से वक्ष                
अस्थि चूर्णों से निर्मित 
विश्व सदन,                             
उद्यत रहती जिस पर 
प्रतिक्षण पूँजी की तीक्ष्ण धार
धूल धूसरित 
कंटकों से शोभित 
उसका जीवन पथ,                          
निरन्तरता के ले स्वप्न अखण्ड ,               
घायल पगों की 
रक्त से रंजित रज 
धोती सदा वह अश्रुधार                    
मायूसी का कोई 
कारण अन्य नही तू समझ         
मेरे भी दिल में 
उठती है लहू की 
लहरें उन्मादी                   
मन मे भरी टीस भारी                    
तन में चुभता है
कंटक सा कोई भयंकर
सिहर उठती पीड़ा 
चुभन बन
उफ यह भयंकर दर्द!        
उमड़ पड़ता स्मृति के द्वार        
कह जाता एकबयक
स्वार्थ की बातें अनेक
चूस लेता नादान शिशु सा 
माँ का रक्त दूध मान      
और भुला देता 
उसको भी बड़ा होने पर
पाला था जिसने 
लाड़ प्यार से उसको     
हर क्षण धन संचय में
कोल्हू में तेली के बैल सा   
वह लगा रहता 
घोलते हुए जीवन में
विशाक्त कर्मों को सत्व
उच्छवास भरती 
उसकी सूनी सांसें                  
छीनने को भूख प्यास उसकी                     
कल उमड़ी थी वह 
अश्कों की नदी बनकर                    
पेड़ पर देखा जब
लटकी हुई मानव की 
मृत लाश            
उतारा था उसको सदुःख 
अभी भी नम थी 
जिसकी आँखे 
बह रही थी जिनसे 
अश्रुधार निरन्तर 
नज़रें गड़ा दी थी  
अमीरों की बेशर्मी ने 
उसकी जमीं पर 
उतावली हो                   
लूट लिया जिसने 
उसका स्वत्व 
एहसानो की लम्बी फेहरिस्त
लटक रही थी
उसकी रूह के द्वार
तनिक भी न
उस पर उसने 
रहम खाया
देखकर बच्चों की भी चीख                         
खाली करवा लिया 
एक झटके में माकान सारा
लगी न तनिक भी 
उसको देर
दरवानों के बल पर  
दाँत निपोरे हँस रहा था वह  
ज़हर बुझे वचनो में
कह रहा था
ठेका ले रखा हूँ 
क्या मैने सारे जग का?          
धिक्कार है !
ऐसे नर जीवन को
महास्वार्थ मे ही 
जो लिपटा हो            
मिथ्या को जो न 
त्याग सका
ऐसा मानव दुनिया में
क्या कर सकता
बुद्धिजीवी होने के नाते
उसे मानव मैं 
कैसे कह सकता
शोषण ही जिसके हथियार
उसे भला किसकी फिक्र
देखे मैने दुनिया में
एक से बढ़कर एक
ऐसे लम्पट धूर्त अनेक ।

Sunday 9 January 2022

मुझे फख्र है

मुझे फ़ख्र है
मैं कभी नही बन सका 
महानायक 
भव्यता और भ्रम के
शानदार उपमानों से 
घिरा हुआ
कथनी तथा करनी में 
अन्तर के पैमाने तय 
करता हुआ
रौब और दौव के साथ
चमचमाती कारों मे सवार
कैमरों के सामने 
झूठी मुस्कान सहेजता हुआ
बल्कि मै लड़ता रहा 
लगातार 
संघर्षशील मनुष्य की 
आवाज बनकर
अन्याय व अत्याचार के 
विरुद्ध उद्घोष बन
यद्यपि नहीं दिला सका मैं
उत्पादकों को
उनकी लागत से 
अधिक कीमत
और विफल रहा
आधी आबादी के संघर्ष को
सरोकारों तक पहुँचाने मे 
फिर भी मुझे फ़ख्र है
मैं कभी नही बन सका 
महानायक 
जो आदमी होते हुए भी
हमेशा रहता हो
आदमियत की जद से 
बाहर
बल्कि इसके विपरीत
मै लगा रहा हमेशा
जन भावनाओं के साथ
मन क्रम वचन से
प्रतिबद्ध योद्धा सरीखा
यद्यपि मुझे भुगतने पड़े 
इसके गम्भीर परिणाम भी
परन्तु मैं खुश था
प्रकृति व परिस्थितियों के साथ 
तदात्म स्थापित करते हुए
क्योंकि मेरे लिए 
महानायकत्व से भी 
महत्वपूर्ण थी
मनुष्यों की संवेदना
जो पहुँचती जा रही है
लगातार खात्मे की ओर