उर पर आलोक अडोलित
चीर तम का सीना
ठहर जाती हैं
स्मृति की लाड़ियां
पल दो चार
चीख उठता है
दर्द
फिर से
खुद की रव में
ठहर गया हो
मानो क्षण कोई
प्राचीन
दिख रहा घना अंधेरा
द्वार पर आज भी
काश आकर देगी
सम्बल
किरण कोई
बुझते मन के
चराग को
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