बार-बार बोलना
बार-बार तोलना
बार-बार मोलना
अच्छा नहीं होता
यह ढोर डंगर सा
मोलना तोलना और
बोलना
फितरत बन गई है
शायद
मिटाना होगा
हाँ मिटाना होगा
गढने होंगे मानवता के
नये मान
जीवन और जंग की
बात
परिभाषित करनी
होगी फिर से
परिभाषायें
तभी जीती जा
सकती है
शर्म और वेहयायी
और तभी लगाई जा
सकती है
शर्त
भूत के वर्तमान से
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