रात का घना अंधेरा
स्याह चेहरे के साध
सामने जब हो जाता है
खड़ा
बढने लगता है डर
सियारों और ऊदविलावों की
आवाज के बीच
झांकने लगते हैं
बहुत से अनजाने
अनपहिचाने चेहरे
जिन्हें पहले कभी
देखा था
याद नहीं आ रहा ठीक से
फिर भी यह एहसास होता है
पहले भी कभी मुलाकात
हो चुकी है इनसे
ये डरे सहमे लोग
जिनकी हड्डिया ही
अब शेष हैं
बिगड़ चुकी है पूरी तरह से
उनके चेहरों की रूहत
इन सब के बावजूद
अभी भी उनके अंदर
शेष है
एक जिजीविषा
जिन्दा रहने की
और जीवित है
संघर्ष का एक दरिया
जो अब भी कर रहा है
प्रतिरोध
सियारों और बिडालों की
की डरावनी आवाजों का ।
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