Sunday 10 October 2021

वे पहाड़ थे

वे पहाड़ जैसे ही थे 
प्रवाहित होती थी 
जिनसे असीम 
वेदनाओं को
सहेजे हुए 
निर्झरिणी सी नदियां
फूटते थे जिनसे
बहुत से झरनों के उत्स
सिंचित करती थीं जो 
आतृप्त मैदानों को
अपने संतृप्त जल से
नवजीवन का संचार करती थी
जंगलों के पौधों 
व जीव जन्तुओं के मध्य
उन्ही के साथ 
प्रेम के कच्चे धागों में 
बंधे हुए 
कष्टो और पीड़ाओं को 
परवाह न करते हुए
बहे चले आते थे
स्नेहसिक्त बन्धुओं की भाँति
कुछ बलुआ पत्थर
जो करते थे उन्हे रोकने के 
हर सम्भव प्रयास
और एकत्रित हो जाते थे
खुद को नन्हे नन्हे
कणों में विभक्त करके
किन्तु नदियो के थे
उससे भी बड़े उद्देश्य
पहुँचना चाहती थीं
जो हर उस जगह तक
आवश्यकता थी जहाँ पर उनकी
यद्यपि वे पहुँची भी
यथा सम्भव उन जगहों तक
और हरा भरा भी बनाया
किन्तु इसके बाद भी 
रह गये 
बहुत से स्थल 
उनके प्रेम से बंचित 
जो अब भी बने हुए हैं
पाषाणों से रुक्ष और कठोर ।

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