वे पहाड़ जैसे ही थे
प्रवाहित होती थी
जिनसे असीम
वेदनाओं को
सहेजे हुए
निर्झरिणी सी नदियां
फूटते थे जिनसे
बहुत से झरनों के उत्स
सिंचित करती थीं जो
आतृप्त मैदानों को
अपने संतृप्त जल से
नवजीवन का संचार करती थी
जंगलों के पौधों
व जीव जन्तुओं के मध्य
उन्ही के साथ
प्रेम के कच्चे धागों में
बंधे हुए
कष्टो और पीड़ाओं को
परवाह न करते हुए
बहे चले आते थे
स्नेहसिक्त बन्धुओं की भाँति
कुछ बलुआ पत्थर
जो करते थे उन्हे रोकने के
हर सम्भव प्रयास
और एकत्रित हो जाते थे
खुद को नन्हे नन्हे
कणों में विभक्त करके
किन्तु नदियो के थे
उससे भी बड़े उद्देश्य
पहुँचना चाहती थीं
जो हर उस जगह तक
आवश्यकता थी जहाँ पर उनकी
यद्यपि वे पहुँची भी
यथा सम्भव उन जगहों तक
और हरा भरा भी बनाया
किन्तु इसके बाद भी
रह गये
बहुत से स्थल
उनके प्रेम से बंचित
जो अब भी बने हुए हैं
पाषाणों से रुक्ष और कठोर ।
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