काले काले बादल
जब उमड़ घुमड़कर
कराते हैं रात भर अपनी
अमृतमयी बूँदों से
शीतलता का एहसास
झूम उठते हैं
मुरझाये हुए पौधों के चेहरे
खिल उठती हैं कलियाँ
झूम उठते हैं नव किसलय
मुझे याद आता है
अपना वह बचपन और वे दोस्त
निकल जाता था
अल सुबह जिनके साथ
सुबह की नम व गीली मिट्टी में
खेलने के लिए
रम्भाने लगते थे जब
पालतू पशु
भर जाता था टर्र टर्र की
बेनामी आवाज से
प्रकृति का आँगन
लरजने लगता था आकाश
गीले जेवड़े और गीले खूँटो में
चरपटाने लगते थे दुधारू जानवर
बाँध देते थे जिन्हे
घर के बुर्जुग
गीले खूँटे से ढीलकर
दूसरे कम गीले खूँटे पर
तभी बछड़े के से साथ
बाल्टी लेकर दूध दुहने
आ जाती थी माँ
और दुह लेती थी सहजता के साथ
दोहनी भर का दूध
जिसे लेकर चले जाते थे
घर के दूसरे लोग
घर में उधम मचाते थे
स्कूल जाने को उत्सुक
छोटे बच्चे
बाडे का काम निबटाकर
स्नान ध्यान कर वापस लौटी माँ
आग डाल सुलगा देती थी चूल्हा
तभी फूँकनी चीमटे
तथा तावे को लेकर आ जाती थी
घर की छोटी बच्ची
और करने लगती थी
रसोई बनाने की जिद
बडे दुलार से उसे पुचकार
लगाती थी माँ
आटे की नन्ही लोई देकर
उसे साध लेती थी माँ
इस तरह चलता रहता है
अनवरत यह क्रम
यद्यपि बदलती रहती हैं
बारी बारी से समय की सभी ऋतुएं
पर नहीं बदलता तो
स्मृतियों में सतत चलने
वाला यह क्रम ।
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