लोग मर रहे थे हाँफते
महामारी के प्रकोप से
वह हाँकता रहा
अपनी यश गाथा की
किंवदन्तियां
थमती गई उखड़ती हुई
तमाम सांसे
पर अलमस्त खोया रहा वह
अपने नकारेपन के मद
लाचार हो देखते रहे लोग
श्मशान घाटों के
धू धू जलती बेतरतीब लाशों के
वीभत्स दृश्य
लेकिन वह परोसता रहा
संख्याओं के जादूई आकड़े
बढ़ती जा रहीं थीं
लगातार जोर की आँधियां
बुझते जा रहे थे
एक एक करके जलते हुए
सभी चिराग
विलीन होता जा रहा
धीरे धीरे गहन तम में
उजाले का आबाद शहर
बढ़ती जा रहीं थीं
हमारे आसपास
डरावनी आवाजों की
सुगबुगाहाटें
बावजूद इसके कायम था
अब भी उस पर भरोसा
इसी से वे उसे खोजते रहे
जख्मी वेदनाओं के इर्द-गिर्द
पर वो तो व्यस्त था
निस्पृह साधकों सा
खुद का हुनर निखारने में
वह प्रसन्न था अपनी
कलाबाजियों के भोड़े प्रदर्शन में
तथा हँस रहा था
ठट्ठा मारकर हो रही मौतों पर
और हम बिवश व लाचार थे
अपना ही तमाशा देखने के लिए
यह कोई पहली दफ़ा
नही हो रहा था
कि हम दोष देते उसको
यह तो अब हो चुका था
उसकी आदतों में शुमार
इसीलिए बार बार कहने के बावजूद
वह तैयार नही था
उसको बदलने के लिए।
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