ठगे जाते हैं
शातिरों के हाथ सदैव से
मासूम लोग
कभी नहीं कह पाते वे
अपनी पीड़ा को
क्योंकि उन्हे विश्वास होता है
एक दिन समझ जायेंगे लोग उन्हे
और वे चुप रहते हैं
ठगे जाते हैं
शातिरों के हाथ सदैव से
मासूम लोग
क्योंकि वे मानते हैं
यह अन्तिम ठगी है
इसीलिए वे सह लेते हैं
उसे हंसते हुए
और आगे बढ़ जाते हैं
सकारात्मकता की प्रत्यासा में
ठगे जाते हैं
शातिरों के हाथ सदैव से
मासूम लोग
क्योंकि उनको उम्मीद आशावान होती है
ढोये जाते रिश्तों में बची हुई
मानवीयता के प्रति
और वे सहज हो जाते हैं
आश्वस्तियों के सहारे
ठगे जाते हैं
शातिरों के हाथ सदैव से
मासूम लोग
फिर भी वे थामे रहते हैं अन्त तक
धूमिल पड़ती पगडण्डियों की बाहें
क्योंकि उनका मन अब भी होता है
आइने जैसा साफ सुथरा
जिसमे आकर बाधाएं
खुद ब खुद होती है शर्मिंदा
जबकि जश्न मनाता है
ठग और उनका पूरा गिरोह
अपनी खोखली जीत पर
जिसे बहुत कम ही लोग
पाते हैं समझ।
ठगे जाते हैं
शातिरों के हाथ सदैव से
मासूम लोग
वे स्वीकार लेते हैं देर सबेर
अपनी ठगी को
और चल पड़ते हैं
अनाहत धारा सरीखे
अप्रतिहत शक्ति के साथ
जबकि ठग और उनका कुनबा
भोगता है अपना द्वारा कृत
कृत्यों का परिणाम
और चाहकर भी नहीं कह पाता
किसी से भी।
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