मुखर होते लगी है
सदियों से ओढी चुप्पियां
रात के घने अंधेरे में
ओढा दी गईं थी
सुबकती सिसकियों को
अभिमान था अपने पौरुष का
जिससे ढांक सकते हैं
रसूख की चादर से
खुद के कृत्य को
जिसे किसी भी तरह
नहीं कहा जा सकता
नैतिक
उन्हे खुद से भी अधिक
भरोसा था
अपनी बलवती सभ्यता पर
जिसने आदिम काल से
बख्श रखा है
अजेय शक्ति जिसके समक्ष
हमेशा से नतमस्तक होने को
विवश हैं स्त्रियां
रोने और बिसूरने की स्थिति
में प्रयोग किया जाता रहा है
कुलटा घोषित करने का भय
जिसकी आड़ में
हमेशा से फूलता और फलता रहा
स्त्री विमर्श का विटप
गली मुहल्ले राह चलते
प्रलोभनों की खेप के सहारे
घायल की जाती रहीं देवियां
समय बदल रहा
अपनी करवट
अब जवाब देना होगा
अहिल्याओ, सरस्वतियोंं,
सीताओं के स्थान पर
इन्द्रों,चन्द्रमाओं,गौतमों,ब्रहमाओं
और रामों को
अब वे बच नहीं सकते
नशे और द्यूत के नामों से
क्योंकि मुखर होने लगी हैं
सदियों से ओढी चुप्पियां
जो तुम्हारी चुनौतियों का
जवाब देने पर आमादा हैं
उन्हे और अधिक समय तक
रोक पाना
अब तनिक भी
नहीं रह गया है
तुम्हारे बस में
प्रद्युम्न कुमार सिंह
Friday 12 October 2018
***** मुखर होने लगी है******
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