कोई कैसे समझ सकता है
एक दिन एक सप्ताह में
किसी भी भाषा का
वास्तविक स्वरूप
भाषा कोई रोबो नहीं
जिसे जरूरत होती है
मात्र एक कमांड की
आज हम भाषाओं के बीच
नफ़रत के बीज
बो रहे हैं
जिनका शिकार
हमारी भाषा भी होती है
बावजूद इसके एक भाषा है
जो आज भी
आकर्षित करती है
मुझे और मेरे देशवासियों को
आज भी वह दिखाती है
अपने अंदाज का कमाल
आज भी लोग खोजते हैं
लहना सिंह का अंदाज
वीर सिंह की दीवानगी
ममता का ममत्व
कोई क्यूं नहीं सोचता
कामरेड सुधीर सिंह की तरह
आलोचक उमाशंकर सिंह परमार की तरह
जवाहर जलज की तरह
कालीचरन नारायन की तरह
पी के की तरह
कुछ स्थापनाओं को
स्थापित करने की
भाषा मे नवीनता लाने का प्रयास
सम्भव हो सकता है
जैसे मायानगरी के हर्फ यद्यपि
उनकी कमाई के रूप में ही हैं
पर आप मानते है
और स्वीकार भी करते हैं
उन्हे उसी रूप
हक कभी खामोश रहने से
नहीं मिलता
भाषा सुविधा के विरुद्ध
चलती है नंगे पांव
सर्वहारा का हाथ थाम
भरती है हुंकार
क्योंकि वह मोहताज नही होती
माध्यमों की
वरन् वह शिशु सी निश्छल होती है
जिसने उसे चाहा
वह भी उसकी होती चली जाती है
जिन्दावाद,मुर्दावाद,
हिन्दी उत्थान - पतन के
ढकोसलों को छोड़
आगे बढती है
लग जाओ तुम भी
हिन्दी के लिए
अड़चनों की परवाह छोड़
कस लो कमर
हिन्दी खुद ब खुद
बढी मिलेगी
दो कदम आगे
प्रद्युम्न कुमार सिंह
Friday, 14 September 2018
*****हिन्दी******
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