बहुतायत में पत्नियां सदा से
बंधी चली आयी हैं
पति के अनुशासन की डोर में
पूर्ण करती रहीं हैं
उनकी हर एक इच्छा को
इच्छा चाहे मर्यादित हो
या अमर्यादित
उचित हो या अनुचित
किन्तु तुलसी की पत्नी
रत्नावली ने
ठुकराया है
तुलसी का अंधाधुंध मांशल प्रेम
जो तुलसी को तुलसी बनने के मार्ग में
बाधक था
जिसके लिए रत्नावली को तपना पड़ना
वियोग घोर उत्ताप में
पत्नियां भी नहीं कर पाती
अपने प्रिय को
कभी भी अपने से अलग
क्योंकि वे नहीं सह सकती हैं
अनन्तकाल तक चलने वाली
वियोग की असीम पीड़ा
जिसकी आँच में तपकर कुन्दन सा
निखर उठता है
प्रेम के प्रति उनका उत्सर्ग
जिसकी दीप्ति से
दीपित हो जाता है उसका
विदग्ध प्रेमी
ठीक रत्नावली की तरह
जिसकी फटकार ने
परिवर्तित कर दिया था
रामबोला को
हमेशा हमेशा के लिए
तुलसी में
पत्नियां हमेशा से चाहती रहीं हैं
पति की प्रतिष्ठा स्थापन
इसीलिए रत्नावली ने
निभाया पत्नी धर्म
और कभी नही बनी
पति की सिद्धि में बाधक
इस बात को विस्तार से बताते हैं
रामदीन पुजारी
जो रहते थे रत्नावली के ही गाँव में
पहली बार हमने तो सुना था
इन्हीं कानों से मामा के गाँव में
उन्हीं के श्री मुख से
जब उन्होंने वर्णित किया था
दामाद तुलसी का हाल
प्रसंगवश पूछने पर हो गये थे
भाव विह्वल
और साध लिया था
कुछ क्षणों के लिए मौन
उनके आंखों से निकलते हुए
आंसू करा रहे थे
आभास उनके अन्तस के
अवसाद का
गहरी पीड़ा उभर पड़ी थी
एकवयक उनके मानस में
गहन टीस थी
रत्ना को लेकर उनके भीतर
झकझोर रही थी जो उन्हे
जैसे निज सुता के दुःखों से तापित होता है
एक असहाय पिता
वैसे ही व्यथित था उनका भी हृदय
यद्यपि प्रश्न था बहुत ही छोटा
परन्तु उत्तर न था थोड़ा
आह भरते हुए बोले क्या बताऊ बेटा !
रत्नावली के सन्दर्भ में निःशब्द हूँ, स्तब्ध हूँ
हाँ इतना अवश्य कह सकता हूँ
कि वह मेरी दृष्टि में
तो साकार रूप थी भोलेपन
जो जीती रही बेचारी जीवन भर
इसी भूमि पर अभिशप्त जैसा जीवन
जिसे भुला दिया है जग ने भी
परित्यक्ता और उपेक्षिता की तरह
अब मैं क्या बताऊ तुम्हे?
पर था मन में उसके एक सन्तोष
पति के हित आ सकी वह काम
आसान नहीं था जिसे साधना
नहीं बनी कभी भी विघ्न वह
साधना में उनके
गुजार दिया बस यूँ ही
पति हित चिन्तन में सारा जीवन
सहते हुए असीम दुःखों को
जिसकी सुध नहीं लिये
कभी भी उसके भगवान तुलसी
तो कैसे कोई और याद रखता उसको
भूल गये सभी एक अबला समझ
कवि को क्या पड़ी थी गरज
चिन्तक क्यों देते उस पर ध्यान
इतिहासकार तो लिखते हैं वही
जो दिला सके उन्हे ख्याति
बचे थे कुछ गाँव के बुजरूग लोग
जो सहेजे थे जेहन में
बेटी की चिरन्तन पीड़ा का
एहसास
सहा था जिसे पुत्री ने
जीवन पर्यन्त
तपती रही दोपहर की धूप सी वह
अद्भुत सौन्दर्य की स्वामिनी
पर नहीं किया लांछित
पति के व्रत को
मौन रह स्वीकार लिया था
विधि के लेखे को
इसके अतिरिक्त आखिर वह
कर भी क्या सकती थी ?
टकराने की उसमे हिम्मत न थी
पुरूष सत्ता से
या फिर बांधे थे समाज के दस्तूर उसे
या फिर बांधती थी
उसे कालिन्दी की धार
या फिर उसके खुद के वसूल और हालात
इससे ज्यादा की नहीं दे रहे थे
उसको इजाजत
जो भी रहा हो इनमें से
जो उसे रोक रखा था उसके पथ पर
परन्तु वह रत्ना थी रत्नों सी
चमक थी उसमे
पति के व्रत को ही शिरोधार्य कर
मानती रही सधवा रहने को ही
सदैव अपना सौभाग्य
रही सदा वह जंगल में रहते
लक्ष्मण की उर्मिला सी
पति से दूर
उसकी ही इच्छाओं की शुभेच्छु
परन्तु आज भी डरते हैं
महेवावासी
ब्याहने से राजापुर में अपनी बिटिया
शायद फिर से न छोड़ दे
किसी रत्नावली को
उम्र भर तड़पने के लिए
कोई तुलसीदास
यद्यपि नहीं अधिक दूरी दोनों के बीच
यमुना ही है मात्र सीमारेखा दोनों की
पर न जाने क्यों ?
इतने दिनों के बाद भी
डरे हुए हैं बेटियों के पिता
नहीं ब्याहते रत्नावली के गाँव वाले
अपनी बेटियों को
तुलसी के गाँव
शायद नागवारा गुज़रे
कुछ लोगों को मेरी बात
और बके बहुत सी गालियां
पर न जाने क्यों ?
आज भी हमें बरबस आकर्षित करती है
रत्नावली की स्मृति
जो कराती है हमें एहसास
बेटियों के लिए
ससुराल वालों से
अधिक मायके वाले होते हैं
हितकारी
जो रखते हैं बेटियों के हितो का
ध्यान जिन्दगी की आखिरी सांस तक
उन्हे जब होती है
सबसे अधिक उसकी आवश्यकता ।
प्रद्युम्न कुमार
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