Wednesday 20 May 2020

****बजारों की उम्मीदें***

आज भी जिन्दा हैं
बंजारों की उम्मीदें 
कि चलती ही रहेगी मुश्किलों में भी 
उनकी जिंदगी की गाड़ी 
फुटपाथों या सड़कों के किनारे 
जहाँ कहीं भी 
दिख जाती है उन्हें 
थोड़ी सी भी 
अनुकूल जगह 
वहीं वे खड़ी कर देते हैं 
अपनी लढी
साथ ही साथ खड़ा कर लेते हैं 
वहीं अपना छोटा सा तम्बू
बाँस-बल्ली के सहारे 
छोंडकर स्त्री और पुरुष का भेद 
बंजारनें उठा लेती हैं 
भारी बोझीले हथौडे                                               बावजूद इसके इन श्रमजीवियों को 
देखा जाता है                                    
हिकारत भरी निगाहो से                          
सुविधा भोगी समाज के द्वारा 
और उड़ाता है इनका मज़ाक၊                    
फिर भी बेलौस जिन्दगी 
जीते है बंजारे                       
और खेल खेल में ही सीख लेते है         
 लोहे के हुनर की बारीकियों को             
नंग धड़ंग उनके बच्चे                             
मगर अफसोस है 
कि ग्लोबल होती जा रही दुनिया में 
खतरे में पड़ता जा रहा है 
बेचारे हुनर बाजों का अस्तित्व

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