Tuesday, 7 July 2020

*** तुम्हारा गाँव हूँ***

मैं वही तुम्हारा गाँव हूँ
जिसकी छतें पानी से 
प्रेम करती थीं
चाँद से रात भर बतियाती थीं
सूरज से प्रतिस्पर्धा कर
स्नेहिल छांव में प्रदान करती थी
स्वर्ग सा सुख 
आकर्षण का केन्द्र होती थीं
मेरे पोखरों की फूली हुई कुमुदनियां
संकरी पगडण्डियों में 
फूट पड़ते थे आनन्द के उत्स 
रिश्तों की मिठास को सहेजे
प्यारी गौरैया फुदकती थी 
इस आंगन से उस आंगन तक
मेरी सीमा पर खड़ा 
बूढा बरगद बाँटता था 
पथिकों के बीच अपरमित स्नेह 
और मेरा विस्तृत वक्ष ही 
होता था अमीर,गरीब,
बच्चे,बूढ़े,
स्त्री और पुरुष 
सभी के लिए आश्रय स्थल
मेरे सानिध्य के लिए तरसते थे
देवता भी 
फिर भी तुमने मुझे छोड़ दिया
यह कहते हुए कि
तुम्हारी गोद में रहूँगा तो
वंचित रह जाऊँगा 
आधुनिक सुख-सुविधाओं से 
बावजूद इसके मैंने नहीं बदला 
अपना स्वभाव 
और नही परिवर्तित किया 
जीने का अंदाज
मैं आज भी खड़ा हूँ
अपनी सिवारों के सहारे
ममत्व की उसी भाव भंगिमा के साथ
क्योंकि मैं गाँव हूँ
जो कभी नहीं भागता 
अपने कर्मपथ से
मैं आज भी उतना ही सक्षम हूँ
जितना सदियों पूर्व 
हुआ करता था
जिसमे सहजता सरलता 
और आत्मीयता के गुणों से युक्त 
सरहदों सरीखे
तुम भी होते थे मेरे साथ  I

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