एक ठूठ की तरह
वह हमेशा खड़ा रहता था
आंगन के बाहर दरवाजे के
एक कोने में
कराता था
हर आने जाने वाले को
अपने होने का एहसास
हमें लगता था
बेकार हो चुका है वह
जाने अनजाने खोजते थे
उसकी बुराइयाँ
पर इन सबसे बेपरवाह
वह दिलाता रहा
अपने अस्तित्व का एहसास
आज जब ढह चुका है वह
निढाल होकर पूरी तरह
हमे मालूम हो रहा है
उसके खड़े रहने की
अहमियत
जो मात्र ठूंठ ही नहीं था
बल्कि हमारे दायित्वो का बोझ
संभाले हुए हमारा सम्बल था
जिसके साये में
हम आज तक महफूज रहे
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