लड़की झांकती है
जब अपने एकान्त मे
उसे दिखाई पड़ती हैं
बहुत सी जानी पहिचानी
धूमिल सी रूहें
जिनमें वह खोजती है
अपनी ही खोई हुई रुह
और खो जाती है
अपने ही खोये वजूद में
वह बार बार करती है
प्रयत्न
अपने वजूद से निकलने का
फिर भी वह रहती है निकलने में
असफल
क्योंकि लड़की और उसका वजूद
मिलकर हो जाते है एक
जिनमें से एक को अलग करना
एक को खत्म कर देना है
Monday, 23 December 2019
****लड़की झांकती है****
सुनो गाँधी !
सुनों गाँधी ! नहीं भाता
बार बार इस प्रकार
प्रश्नों की जद में
हुम्हारा आना
पर दूर घटित होते घटनाक्रम
बार बार कुरेदते हैं
स्मृतियों को
कि कुछ लोग
आज भी तुले हुए हैं
तुम्हारे सत्य और अहिंसा को
मात देने में
इसके लिए तुम बनाये जा रहे हो
लगातार मोहरा
कोई चिपका हुआ है
तुम्हारे जीवन की झलकियों के साथ
और कोई अपने इरादों का
भुरभुरा चूर्ण धुरककर
उसमे अपनी विषाक्त नियति का
मिठास घोलकर
जुटा हुआ है साधने पर
अपना स्वार्थ
रक्ताभ अंचल में
कुनमनाती अहिंसा
आज भी देखती है
तुम्हारी अनुलंघनीय राह
सुनो गाँधी !
पहले से भी अधिक
प्रासांगिक हो गई है
तुम्हारे विचारों की परख की
और उनकी परख रखने वाले पारखी
जिनके डग भरने मात्र से
डगमगाने लगती थीं सत्ता
और उनकी राहें
सुनो गाँधी !
क्या फिर से आओगे ?
सत्य अहिंसा का पाठ पढाने
अपने देश में
Sunday, 10 November 2019
****चेहरों में आई सिकन के रूप में****
साफ तौर पर
देखा जा सकता था
चेहरों पर
खिसकती जमीनों का
खौफ
धमाचौकड़ी के माध्यम से
किया जा रहा था
उसका भयावहता के मुआयना
शायद यह पहली बार था
जब भय के साये में
सांस लेने को मजबूर था
खौफ का मंजर ।
ललाट की तनी हुई नशों की
उभरी हुई रेखाएं
दे रही थीं स्पष्ट दिखाई
बात साफ थी
आइने की तरह
उजड़ चुकी थी
पुस्तैनी ख्वाबों की दुनिया
बसने से पूर्व ही
और वे विवश थे
बेचारे होकर
संदेशा साफ था
चूक चुकी थी
सियासतदान की सियासत
और गश खाकर
गिर चुके थे पैरोंकार
खिसकती जमीन का
मिजाज भांपकर
खामोश थी धरती,
चुप था अकाश
एवं स्तब्ध था जनसमूह
पर लगातार चिल्लाये जा रहे थे
भोंपू की ऊल जलूल
क्योंकि स्पष्ट था
जीत हार से
दूर खड़ा जनसैलाब
कर रहा था
जय पराजय से अलग
जज़्बातों से उबरने का उपाय
जो कर रहा था
उन्हे मोड़ने
सकारात्मक प्रयास
क्योंकि वह समझ चुका था
चन्दे से इकट्ठी
धनराशि को
चट करने में माहिर
दीमकों की हकीकत
जो प्रकट हो रही थी
चेहरों में आई
सिकन के रूप में
के रूप में
Monday, 21 October 2019
****अमराइयों के संग****
अमराइयों के संग
बसन्त झूम रहा
पिक शुक के
कलरव बीच
दिनमान दमकता
हूक सी उठ रही है
फिज़ाओ में
मौसम की बूंदाबांदी मे
चन्दन सा महक रहा
धरती अम्बर के रत्न सा
जलज दहक रहा
अरिदल के उर में
शूल सा सालता
छल दम्भ द्वेष पाखण्ड को
निज पौरूष से जीतता
अमराइयों के संग
कोकिल सा कुहुक रहा
जीवन की अभिलाषाओं में
चम्पक के फूलों सा
कविता के साथ ढुरक रहा
अनवरत
दर्द के अनछुए पहलुओं की
कुरदन से
अन्तर्मन उसका कसक रहा
Tuesday, 15 October 2019
****कुछ लोग****
कुछ लोग रचाते हैं स्वांग
दिखावे के लिए
कुछ लोग करते है बखान
कार्य की गुणवत्ता का
कुछ लोग पालते है ख्वाब
भूमि पूजन का
कुछ लोग मान लेते है
फोटो और सेल्फियों से ही
खुद को बड़ा
पर कुछ है जो
इन सब से अलग रहकर
करते हैं कार्य
और हो जाते हैं महान
कुएं के पास दिखते
यह लोग किसी सेल्फी/ तश्वीर
के लालच में नही खड़े
बल्कि कुआँ जियाओ
जीवन बचाओ
अभियान को गति देने को
उतावले नन्हे शिल्पी हैं
जो गुरुओं के साथ
डटे हुए है कर्तव्य पथ पर
लगातार
बड़प्पन !
कोई स्टेज शो नहीं होता
जिसे साधा जा सके
मंचन के द्वारा
न ही जबरदस्ती थोपने की
वस्तु ही है
बल्कि यह !
मानवजनित मानवीय संवेदनाओं का
संगठित रूप हैं
जिसे रखना पड़ता है
संभालकर
यह कोई आसान नहीं होता
न ही सबके वश में होता है
क्योंकि यह मात्र लफ्जो की
जुगुलबन्दी नहीं होता है
अपितु कार्य में विश्वास का
दूसरा नाम है
जिसे यह लड़के कर रहें है
मिलकर एत्मिनान के साथ साकार
Sunday, 13 October 2019
****उनकी याद****
कल की तरह ही
आज भी
जेहन में बनी हुई है
तरोताजा
श्वास प्रच्छवास के सापेक्ष
जीवन रस सी
आबाध उनकी याद
कलकल झरते झरने की तरह
समय के थपेड़ो से
अनछुई,
अनबुझी,
अनभिज्ञ,
और अंजान
अब भी खड़ी है
अपने उसी अनोखे
अंदाज में
समय के बीजशब्द सी
चाहारदीवारी से
लुकती, छिपती,
और अनजाने भय से
सहमी हुई
स्मृतियों के सहारे
आज भी बनी हुई है
उनकी याद
पक्ष के प्रतिपक्ष की तरह ।
धुनों में समाये
गीत की तरह
अजस्र रस के साथ
अनायास
उपस्थित हो जाती है
बुझे हुए दीपक की दीप्ति सी
दमकती
उनकी याद
आ जाती है
क्षण क्षण जीवन के पास
चांदनी में नहाती धरती की तरह
उम्मीदों के दरख्तों सी
बनाने हृदय के पास
घास फूस के कोटर
समय के असमान रूख के
खिलाफ
भरती हूंकार
सघन स्वप्नों के मध्य
दिलाती विश्वास
छा जाती है बदली सी
मानस के पास
बसती है उनकी याद
रात रानी की तरह
Wednesday, 2 October 2019
****उम्मीदों के साफे****
उम्मीदों के साफे
माथ पर बांधे
तुम करते रहे जयघोष
ललकार की तर्ज पर
भरते रहे हुंकार
खून पसीने के व्यवहार को
उनका समझते रहे
उपकार
वे ऊँघते रहे
स्वप्नों के स्यापों के साथ
उनकी हसरत थी
पुनः देखने की
खेत में खड़ी फसल की
पकी बालियां
पर अफसोस !
ठहर नहीं सका
सुनहरे स्वप्नों के समक्ष
उम्मीद के साफे
माथ पर बांधे
तुम गाते रहे जयगान
लुटती रही चौराहों पर
लाज की लाज
दो टूक आंखों से
वे देखते रहे
जिन्हे उम्मीद थी
रहनुमाओं के रहमो
करम की
वे खड़े बेशर्म से
मुस्कुराते रहे
हो रहा था छिन्न भिन्न
आधारहीन सपना
इसमे दोष सिर्फ उनका ही नही था
तुम भी शरीक थे
बहशी भीड़ के अंग की तरह
क्योंकि तुम्हारे शौक भी पल रहे थे
अनाम स्वप्नों से
बोलता था जो वह
आम को इमली
तुम भी बोलते और
समझते रहे
आम को ही इमली
उम्मीदों के साफों की तरह
Monday, 30 September 2019
****पुलों के ढहने से****
पुलों के ढहने पर
मुस्कुराते हैं
कुछ चेहरे
जैसे बादल को देख
मुस्कुराता है
ग्रीष्म के ताप से तपा हुआ
किसान
गर्मी और उमस से परेशान
आदमी
सूखे तालाबों में विहार को
उत्साहित खेचर
प्रफुल्लि हो उठता है
जन समुदाय
वैसे ही खुशी से झूम उठते हैं
कुछ चेहरे ।
पुलों के ढहने पर
सहम जाते हैं
उन पर भरोसा करने वाले लोग
वे उठाते हैं
पूरी ताकत के साथ
पुल के ढहने पर सवाल
क्योंकि पुलों के साथ
ढह जाते हैं
उनके विश्वास
पर कभी नहीं हो पाती
उजागर
पुलों पर धांधली की बात
क्योंकि जांच से भी ज्यादा
ताकतवर होते हैं
धांधली करने वाले लोग ।
पुलों के ढहने पर
मुस्कुराते हैं कुछ चेहरे
और जुट जाते हैं
नये पुलों के प्रस्ताव के लिए
सोंच से भी अधिक
तत्परता के साथ
पा लेते हैं
नये पुल के निर्माण का
प्रस्ताव
फिर से शुरू होता है
पुलों के बनाने बिगाड़ने का
कभी न खत्म होने वाला खेल I
Saturday, 28 September 2019
****जंगल की ओर****
पेड़ों की बीनी गई
लकड़ियो के गट्ठर को ही
आजीविका बनाये हुए
लकड़ियों का गट्ठर ले लो की
मीठी आवाज में पुकारती हुई
लड़की चली जाती है
गाँव की ओर
कुछ लफाड़ियों की
तीरती निगाहों को अनदेखा करती हुई
लगातार तेज आवाज में
बताये जा रही थी
सूखी लकड़ियों के गट्ठर का दाम
वह समझती है
गट्ठर से अधिक सुगठित
शरीर को
ताकती निगाहों को
यद्यपि वह दे सकती थी
माकूल जवाब
बावजूद इसके वह चुप है
क्योंकि उसे पता है
भूख के लिए जवाब से
ज्यादा जरूरी
लकड़ियों का बेचा जाना ।
माटी के माधव की तरह वह
डउका लोगों को छोड़
बढ जाती है आगे
और लकड़ियों को
औने पौने दाम बेचकर
लौट जाती है वापस
नये उत्साह और उमंग के साथ
निश्छल निस्सीम
सूखी लकड़ियों की तलाश में
जंगल की ओर ।
Sunday, 15 September 2019
***फर्क नहीं होता ****
वे सच में तलेंगे
पकौड़े
क्योंकि उनकी सोच
अभी भी पकौड़े से आगे
नहीं बढ सकी है
सच मानों
पकौड़ा तलना कोई आसान
काम नहीं होता
किसी अंजान व्यक्ति के लिए
उसमें भी ध्यान रखना होता है
आँच की उच्चता और निम्नता का
और साथना पड़ता
चापलूसों की लपर लपर
करती जुबान को
और खड़ी करनी पड़ती हैं
अपनी हाँ में हाँ मिलाने वाले
वफादार कारिन्दों की पूरी फौज
जो तलने से लेकर
जायके तक के गणित का
विस्तार से कर सके बखान
वे सच में तलेंगे पकौड़े
आज बातों के
और कल जज्बातों के
क्योंकि सोच
और पकौड़े तलने के
अंदाज में
बहुत अधिक फर्क नहीं होता
Friday, 13 September 2019
*****बहुत मुश्किल होता है*****
बहुत मुश्किल होता है
अपने को निरपेक्ष
रख पाना
क्योंकि इसके लिए
साधना पड़ता स्वयं
मनाना पड़ता अपने आप को
तैयार करना होता है
खुद को निरपेक्ष भाव प्रति
किन्तु यह असम्भव नहीं होता
आप रख सकते हो
अपने आप को निरपेक्ष
राख में सुरक्षित आग की तरह
आप साध सकते हो
अपने आप को
प्रलोभनों से अलग रहकर
आप तैयार कर सकते हो
खुद को
दूसरों की पीड़ा की अनुभूति के द्वारा
हां आप बना सकते हो
असम्भव को सम्भव
Thursday, 12 September 2019
*****विस्तारित होता जा रहा है****
विस्तारित होता जा रहा है
दिन ब दिन
खोखलेपन का बाजार
तरासे जा रहें हैं
बाज़ार के द्वारा
नये नये नमूने
जो आकर्षित कर सके
नई आवकों को
विस्तारित होता जा रहा है
समाज एक एक कस्ता हुआ
अपने अपने अंदाज में
क्षण प्रति क्षण
रिक्तता को ओढता हुआ
लगातार बढ़ रहा है
बाज़ार की ओर
विस्तारित होता जा रहा है
वेपरवाह समय की भांति
देश के कर्णधार युवा
झूठें दिखावे के साथ
हकीकतों को नज़रअंदाज कर
घटिया सामग्री से
निरन्तर बिछते जा रहे हैं
उसकी ओर
विस्तारित होता जा रहा है
समाज का प्रत्येक धड़ा
दरकते घाट सा
नदी में मिलने को बेताब
भुनाना चाहता है
जिसे पूंजी का अदृश्य भेडियां
इसीलिए चकाचौध के बीच
दीमकों सा करता जा रहा है
उसे निरन्तर खोखला
विस्तारित होता जा रहा है
खोखलेपन का बाजार
जिसके रंगों को और अधिक
चटख बनाता है
आवारा पूंजी के हाथों
खेलता मीडिया
और उसके जोर जोर से
चीखतेे हरकारे
जिसे सहजता के साथ
स्वीकार कर लेती है
हमारी खोखली होती युवा पीढी
विस्तारित होते बाजार के सापेक्ष
Wednesday, 11 September 2019
****काश वे जिन्दा होते****
काश वे जिन्दा होते
तो देखते
अपने द्वारा रोपी गई
कौमी नस्लों की लहलहाती
फसलें
जो बढ़ चुकीं है
कितनी आगे
काश वे विचारे होते
वंशवाद से ही फूटती हैं
किल्लियों सी नस्लें
और यह ही कर देती हैं तबाह
किसी भी सार्वभौम
सत्ता को
काश वे चेते होते
नस्ली होने से पूर्व
और छोड़ देते समय रहते
पीछे चलने वाला
अपना धइना
तब अपने आप खत्म हो जाता
हमेशा खटने का टंटा
काश वे समझे होते
नस्लवाद के हानि और लाभ
और फिर विचार करते
तो शायद कल से वेहतर होती
आज की तस्वीर
तारीफों के कसीदों के
अतिरिक्त
यदि सुनी गई होती
अपनी भी आलोचना
तो बदल गये होते कब के हालात
काश वे जिन्दा होते
तो सुनते अपने नुमाइंदों की
गंधाती दोमुही बातें
जिनके लिए दो तरह की होती हैं
आदर्श की परिभाषाएं
एक खुद के लिए दूसरी दूसरों के लिए
शायद आज जीवित होते हुए भी
जिन्दा नहीं रहे
क्योंकि जिन्दा होने और मृत होने में
फर्क होता है चेतना का
Wednesday, 4 September 2019
****अनायास ही****
अनायास ही बढ गई है बिक्री
सियासी गमझो
एक दो चार प्रतिशत नहीं
बल्कि पूरे के पूरे सौ प्रतिशत
नफे नुकसान के मद्देनज़र
जतायी जा रही है
स्टाक खत्म होने की आशंका
फिर भी बढ़ती जा रही
लगातार खरीदने वालों की भीड़
रिकार्ड किये जा रहें हैं
गमछों की बिक्री के आकड़े
और इन्ही के मुताबिक की जा रही
वोटों की गिनती
उधर मीडिया रिपोटर
पेश कर रहें है
बढती बिक्री के गगनचुम्बी आकड़े
जिसको सुनकर खुश हो रहे हैं
सियासी पण्डित
और इतरा रहें हैं अपने अपने
गमझों की
बिक्रीत संख्या को सुन सुनकर
परन्तु जनता खामोश है
बिल्कुल अर्द्धरात्रि के शोर सी
सभी खुश हैं
गमछा विक्रेता, चन्द्रमा,
टीआरपी का खेल खेलते
न्यूज चैनल ,
एवं युद्ध जैसी विभीषिका में
चींखते चिल्लाते
उनके एंकर,
पार्टी प्रमुख व मन्त्री बनने की
आस संजोये चिफुलकार
यह खुशी अनायास नहीं है
बल्कि इन सभी ने स्वेच्छा से
खरीदी है
अपने अपने सट्टेबाजी से
Tuesday, 3 September 2019
****वैशाखियों के सहारे****
जब वैशाखियों के सहारे
चलती हैं सत्ताएं
तब उधड़ती है
दावों प्रतिदावों की
परत दर परत
और खत्म कर दी जाती हैं
वैशाखियों के घुन से
कमजोर बनाई गई है
क्षमताएं
क्योंकि वैशाखियाँ
कभी भी नही चाहती
सुचारू रूप से कार्य
कर सकें
योग्यताएं और क्षमताएं
इसीलिए वे करती रहती हैं
हमेशा
क्षमताओं और योग्यताओं को
हतोत्साहित करने के
नियोजित कार्य
जिससे साधी जा सकें
अपेक्षाएं
इसीलिए वे गढती हैं
मनगढन्त नियामक परिभाषाएं
और थोपती है जबरिया
अयोग्यताओं और अक्षमताओं के
सहारे
और करती हैं योग्यताओं और
क्षमताओं को
कुचलने के हर सम्भव
प्रयास
यद्यपि पाला बदलने में
माहिर होती हैं वैशाखियाँ
और समय बदलते के साथ ही
बदल लेती हैं
खूबसूरत अंदाज में अपना पाला
और खड़ी हो जाती हैं
दुगने उत्साह के साथ
किसी अन्य पक्ष में
नये अवतार के रूप में
Wednesday, 28 August 2019
****पहली दफ़ा****
हाँ ! कुछ ऐसा ही
पूँछा था
सिद्धार्थ ने अपने सारथी से
क्या मुझे भी
मरना पड़ेगा एक दिन ?
और एक कुशल शिक्षक की तरह
जवाब दिया था
सारथी ने
हाँ राजकुमार !
आपको भी मरना होगा
एक दिन इसी तरह
इसी एक वाक्य ने
बदल दिया था
राजकुमार सिद्धार्थ को
यती बुद्ध में
सच हो गई थी
कौडिन्य की वर्षों पूर्व की गई
भविष्यवाणी
जो उसने की थी
यूँ ही आदतन
हाँ कुछ ऐसा ही
पूँछा था
सिद्धार्थ ने अपने सारथी से
क्या मुझे भी
सहने होगे अनाम दुःख ?
सारथी के हाँ कहने पर
छोड़ दिया था
हमेशा हमेशा के लिए
राजत्व का मोह
और निकल पड़े थे खोज में
दुःख समाधान की
तब जाकर कहलाये थे बुद्ध
एवं संसार ने जाना था
पहली दफ़ा मज्झिम मार्ग का
सुगम रास्ता
Tuesday, 27 August 2019
****निर्वात की तरह***
खबर बड़ी थी
वे बीमार थे
इलाज के लिए गये थे
चिकित्सालय
क्या यह सच था ?
या खबरनवीसों की कोई
कारस्तानी था
या फिर सोची समझी
साजिश थी
उन्हे बदनाम करने की
बताओ बताओ हाकिम
कुछ तो कहो
अपनी सफाई में
यही बोल दो
बीमार नहीं थे
तबियत कुछ नासाज थी
इसीलिए चले गये
हस्पताल तक
या यूँ ही कह दो
जरूरत पड़ गई थी
एम्स के फेफड़ों को
योग के फेफड़ों से निकलने वाली
आक्सीजन की
जाना पड़ा था झसी कारण
अचानक
पर नही समझ सके
खबरदाता अखबार
न ही समझ पाये हरकारे भरते
एंकरनुमा जीव
और कर दिया बीमारी का एलान
कि वे बीमार थे
भर्ती कराया गया है उन्हे
इलाज के लिए
बड़े अस्पताल के विशेष
सघन कक्ष में
अब तुम्ही बताओ भला
क्या जवाब देते वे ?
और क्यों देते ?
आखिर खबर बड़ी थी
चैनलों की भी तो बढ रही थी
टीआरपी
उन्हे चर्चा में बनाये रखने पर
इसीलिए वे चुप थे
बिल्कुल निर्वात की तरह
Sunday, 25 August 2019
*****सर्प बनने के लिए*****
हाँ !
वे आदमी ही हैं
जो प्रयासरत हैं
विषधर बनने के लिए
इसके निमित
बाकायदा उन्होने शुरू कर दी हैं
तैयारियां
मसलन फुफकारने,
डसने और घिसलकर
चलने की
अब वे मानने लगें है
खुद को विषधारी
उनका यह मानना
कोई अचानक घटी घटना नहीं है
ना ही उनका फितूर है
बल्कि इसके पीछे
छिपा हुआ है
उनके विषधर बनने का
पूरा इतिहास
जो किये हुए है
आदमी से उनका
अलगाव
और वे आज भी हैं
अभिशप्त
सर्प बनने के लिए
Saturday, 24 August 2019
****दर्प से दीपित****
दर्प से दीपित होता था
जिनका भाल
सुर्ख लहू सा लाल
जिनके अधरों का रंग
जम चुकी है उनमे अब
समय की दूब
मुंह चिढा रही थी
रात्रि अवशेष
गायब थी अजनबियों सी
होठो पर तिरती
वह मुस्कान
सोया था
सदा सदा के लिए
यहीं कहीं पर
वह चतुर किसान
छीनी जा चुकी थीं जिससे
रसूख की
मखमली चादरें
कितना बेपरवाह निकला
समय का सारथी
नहीं कर सका रक्षित
निढाल पड़ने से पूर्व
अपने रथी को
**** मौन****
देश सारा मौन है
आखिर वह कौन है
देता वक्त जिसकी गवाही
हुक्म नहीं फरमान है
राष्ट्र सारा मौन है
आखिर वह कौन है
बेचता है सब कुछ
धर्म,ईमान,और मान
कहता फिर भी
आरोप सारे कौन हैं
पूंजी के रथ पर सवार
वक्र दृष्टि दंगा करती
सौ सौ प्याले गरल उगलती
चमन के अमन में खलल उसका
मधु के छत्ते से मधू लुटाता
ईमान धरम की बातें करता
तुम्ही बताओ मदारियों सा
वह कौन
क्योंकि उत्तर भी इसका मौन है ।
Thursday, 22 August 2019
****निहायत जरूरी है***
आदेशित कर दो
तिजारती शब्दों को
क्योंकि यह माकूल समय नहीं है
धूर्तों की धूर्तता के लिए
करवा दो शब्दों की मुनादी
कि वापस लौट जायें
दरबों की ओर
क्योंकि फिराक में बैठे हैं
घुसपैठ की
बहुत से घुसपैठिये
जो घूम रहें हैं
बेखौफ
उनके वकतव्यों एवं हाव भाव से
समझी जा सकती है
उनकी पक्षधरता
अनदेखा कर दिया गया है
श्रम और उसका महत्व
अब खोजी जाने लगीं है
आकाश में तिरते स्वप्नों में
मनुष्य होने की समस्त
सम्भावनाएं
फन्दों में झूलती लाशों के
जेहन में भरी जा रहीं हैं
भ्रमित करने वाली
भ्रामक कल्पनाएं
जिससे झुठलाई जा सकें
कराहती आवाजों की झिर्रियां
अब इन पर सोचना
विचार व्यक्त करना प्रतिबन्धित है
जिन पर सोचना और विचार करना
आता है संगीन
अपराध की श्रेणी में
जिसे क्षमा किया जाना
मानवता के प्रति घोर अन्याय है
देशहित मे
जिसका रोका जाना
निहायत जरूरी है
Saturday, 17 August 2019
**** कुछ तो रहा होगा*****
कुछ तो रहा होगा
उनका मकसद
यूँ छुपे हुए रहने का
यद्यपि दिन प्रति दिन
वे खोते जा रहें हैं
विश्वास
उनका यूँ बार बार
आ धमकना
आगाह करता है
खतरे में है उनका वजूद
और मुश्किल में हैं उनकी
अंस्मिता
जिसकी जद में आ चुकी है
ओढी दसाई उनकी हठधर्मिता
और तुर्रा बना उनका अहम
अबोल होने के बाद भी
बहुत कुछ कहते हैं
चहलकदमी के कारण निर्मित हुए
उनके पैरों के निशान
तय होती है जिनकी जवाबदेही
स्वयं के द्वारा स्वयंभू बनने की
पगदण्डी से
मूल में छिपा हुआ है जिसके
बेतहासा नफे का गणित
जिसमें अन्तर्निहित होती है सामन्ती सोच की
कलुषित मानसिकता
जिसके साये में धूमल पड़ने लगी हैं
उजली छवियां
ढीला पड़ने लगा है
विश्वास का
मज़बूत धागा और उसकी पकड़
Monday, 12 August 2019
*****हाँ वे पण्डित ही थे****
हाँ वे पण्डित ही थे
ज्ञान के देवता नहीं
पोंगापंथ को मानने वाले
दिखाई दे जाते हैं जिन्हे
जगह जगह दोष ही दोष
हाँ वे पण्डित ही थे
पाखण्ड का विरोध करने वाले
महामानव नहीं
बल्कि झूठ और फरेब को
सच बताने वाले
आतताई
हाँ वे पण्डित ही थे
ब्रहम को भी अपने ज्ञान और कर्म से
कमतर सिद्ध करने वाले नहीं
बल्कि अहंकार और तृष्णा से युक्त
लालच के पुजारी
हाँ वे पण्डित ही थे
विश्वबन्धुत्व की सीख देने वाले
पुरोधा नही
बल्कि जाति सम्प्रदाय के नाम पर
हिंसा और उन्माद को सह देने वाले
दुर्धष दैत्य
हाँ वे पण्डित ही थे
अपने ज्ञान से विश्व को
आलोकित करने वाले
प्रकाश पुंज नहीं
बल्कि अपने अहम से
जगमगाते विश्व में अंधेरा फैलाने वाले
निशाचर
Wednesday, 31 July 2019
**** इस शाख से उस शाख तक*****
श्मशानों में ही नहीं रहते हैं मुर्दे
उनका कोई
निश्चित गाँव भी नहीं होता है
वे तो मिल जाते हैं
हर वक्त हर जगह
अलग अलग अनुपात में
क्योंकि मुर्दे केवल वे ही नहीं होते
जो जिन्दगी जीने के बाद
सहज़ मृत्यु को प्राप्त हो
श्मशान में रहने को बाध्य होते हैं
मुर्दे वे भी होते हैं
जो जिन्दा रहते हुए भी
हो रहे अन्याय के विरुद्ध
आवाज उठाने से कतराते हैं
और मुंह फेर लेते हैं ऐसे वाक्यों से
दिन ब दिन बढती जा रही है
ऐसे मुर्दो की संख्या
हमारे और तुम्हारे बीच
अमरबेल के बेल की तरह
इस शाख से उस शाख तक
Thursday, 25 July 2019
**** तुम्हारे लिए आसान नही होगा****
वह कौन है
जो जरूरतों के बहाने
चुरा रहा है
धरती का हरापन
वह कौन है
जो विकास के बहाने
छीन रहा है
पहाड़ का पहाड़पन
वह कौन है
जो सुगम आवाजाही के बहाने
रोक रहा है
नदी का स्वच्छद बहाव
वह कौन है
जो परियोजनाओं के बहाने
उजाड़ रहा है
बसे बसाये गाँव और उनका गाँवपन
वह कौन है
जो लोकहित के बहाने
नष्ट कर रहा
मानव और जंगल के सम्बन्धों को
समय रहते यदि
तुम समझे नहीं और रोका नहीं
तो एक दिन आयेगा
जब वह तुम्हारी ही आंखों के सामने
निगल जायेगा
तुम्हारे खेत, तुम्हारे जंगल,
तुम्हारी नदियां, तुम्हारे पहाड़,
तुम्हारे रिश्ते, तुम्हारा सौहार्द्र
तुम्हारा पुरुष, तुम्हारी स्त्री
और बहुत कुछ
क्योंकि दिन प्रति दिन
बढती ही जा रही है
उसके चबाने और पचाने की शक्ति
जिससे बच पाना
तुम्हारे लिए आसान नहीं होगा
Saturday, 20 July 2019
****एक अंजान सी लड़की***
एक अंजान सी लड़की,
सहज ही
जाने कितनी,
गहरी बात कह गई।
जाति के घाव गहरे हैं
कितने छालों के बल
वह बोल गई
परतों में लिपटी
स्याह परते बहुत
यह सच उघाड़ गई
भरौनी खाते जिस्मानी
गिद्धो की देह पर
घूरती नज़रों की
पोल सारी खोल गई
दुश्वारियों के बीच ही सही
मन को कचोट रहे
स्वार्थ के चिंतनों के राज़
अनोखे बोल गई
एक अंजान सी लड़की
सहज भाव में ही
जाने कितनी
गहरी बात कह गई
शिक्षित होकर भी
अस्पर्शता के दमित दंश को
पलकों में चुभा गई
प्रद्युम्न कुमार सिंह
Monday, 15 July 2019
****मुर्दों के हर्फ नहीं होते****
मुर्दो के हर्फ नहीं होते
इसीलिए वे !बात भी नहीं कर सकते
श्रवण क्षमता नहीं होती
इसीलिए जिन्दा जबाने
सुन नही सकते
माद्दा नही
फासले तय कर सकें रास्ते
इतलिए उनके जरूरी होते हैं
चार कंंधे
जिनके सहारे तय कर सकें दूरियां
बोलना, सुनना
और चलना
मुर्दों का नहीं
जिन्दा कौमों का हुनर है
जिनमे यह होता है वे
जिन्दा होते हैं
जिनमे नहीं होता
वे मुर्दा
पर अफसोस !
आज जिन्दा कौमें
बढ़ रही है
मुर्दापन की ओर
और मुर्दे और श्मशान
दोनो खुश हैं
बढती हुई अपनी आबादी
देखकर
Sunday, 14 July 2019
अति उत्साही
कुछ !
अति उत्साही लोग
होते है
विचारों की प्रगतिशीलता के
जनक
स्वप्न में भी
जिन्हे सुनाई पड़ती है
क्रान्तिकारी विचार की धमक
जिनके केन्द्र में होता है
दुनिया का निरीह
जीव शिक्षक
जिसे जब भी चाहे
बनाया जा सकता
निशाना
यद्यपि उनके विचारों में
भरी होती है
सर्वश्रेष्ठ दिखने की
कुण्ठाग्रस्त मंशा
जिसे वे समय समय पर
जिसे करते हैं
गर्व के साथ
चकौड़ों की ओट से
प्रसारित
क्योंकि उनके प्रगतिशील
विचार उपजते हैं
खेतों में निठल्ले खड़े
इन्ही चकौड़े के पेड़ों को
देखकर ।