उम्मीदों के साफे
माथ पर बांधे
तुम करते रहे जयघोष
ललकार की तर्ज पर
भरते रहे हुंकार
खून पसीने के व्यवहार को
उनका समझते रहे
उपकार
वे ऊँघते रहे
स्वप्नों के स्यापों के साथ
उनकी हसरत थी
पुनः देखने की
खेत में खड़ी फसल की
पकी बालियां
पर अफसोस !
ठहर नहीं सका
सुनहरे स्वप्नों के समक्ष
उम्मीद के साफे
माथ पर बांधे
तुम गाते रहे जयगान
लुटती रही चौराहों पर
लाज की लाज
दो टूक आंखों से
वे देखते रहे
जिन्हे उम्मीद थी
रहनुमाओं के रहमो
करम की
वे खड़े बेशर्म से
मुस्कुराते रहे
हो रहा था छिन्न भिन्न
आधारहीन सपना
इसमे दोष सिर्फ उनका ही नही था
तुम भी शरीक थे
बहशी भीड़ के अंग की तरह
क्योंकि तुम्हारे शौक भी पल रहे थे
अनाम स्वप्नों से
बोलता था जो वह
आम को इमली
तुम भी बोलते और
समझते रहे
आम को ही इमली
उम्मीदों के साफों की तरह
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