Saturday 24 August 2019

****दर्प से दीपित****

दर्प से दीपित होता था
जिनका भाल
सुर्ख लहू सा लाल
जिनके अधरों का रंग
जम चुकी है उनमे अब
समय की दूब
मुंह चिढा रही थी
रात्रि अवशेष
गायब थी अजनबियों सी
होठो पर तिरती
वह मुस्कान
सोया था
सदा सदा के लिए
यहीं कहीं पर
वह चतुर किसान
छीनी जा चुकी थीं जिससे
रसूख की
मखमली चादरें
कितना बेपरवाह निकला
समय का सारथी
नहीं कर सका रक्षित
निढाल पड़ने से पूर्व
अपने रथी को

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