पेड़ों की बीनी गई
लकड़ियो के गट्ठर को ही
आजीविका बनाये हुए
लकड़ियों का गट्ठर ले लो की
मीठी आवाज में पुकारती हुई
लड़की चली जाती है
गाँव की ओर
कुछ लफाड़ियों की
तीरती निगाहों को अनदेखा करती हुई
लगातार तेज आवाज में
बताये जा रही थी
सूखी लकड़ियों के गट्ठर का दाम
वह समझती है
गट्ठर से अधिक सुगठित
शरीर को
ताकती निगाहों को
यद्यपि वह दे सकती थी
माकूल जवाब
बावजूद इसके वह चुप है
क्योंकि उसे पता है
भूख के लिए जवाब से
ज्यादा जरूरी
लकड़ियों का बेचा जाना ।
माटी के माधव की तरह वह
डउका लोगों को छोड़
बढ जाती है आगे
और लकड़ियों को
औने पौने दाम बेचकर
लौट जाती है वापस
नये उत्साह और उमंग के साथ
निश्छल निस्सीम
सूखी लकड़ियों की तलाश में
जंगल की ओर ।
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