Friday, 1 December 2017

*****बहुत अच्छा लगता है*****

बहुत अच्छा लगता है
जब तुम करते हो
विकास की बातें
तुम्हारी बातों से
थरथराने लगतें हैं
पर्वत
गहराने लगता है
उजालों के बीच
अंधेरा
उदास हो जाती
सारी प्रकृति
चमक उठती हैं
तुम्हारी आंखों की पुतलियां
जोड़ देते हो
जब तुम
हर बात को अपनी
नकली भावनाओं से
और बजाने लगते हो
बात बात पर
अन्य पुरुषों सी तालियां
अपनी कुटिल चालों से
छीन लेते हो
पशुओं के रंभाने की
आवाजें
लहलहाते खेतों की
हरियाली
तुम ढांप देते हो
कंक्रीट के जंगलों से
गांवों नगरों के
सहज रास्ते
प्रदूषण के नये-नये
उपायों से
जिससे घुलता जाता है
पल प्रतिपल
श्वासों में
विषाक्त ज़हर
और महसूस होने लगता है
जीवन भार
इसके बावजूद भी तुम
तुम तुले हुए  हो
विकास की भोथरी
बातों के भ्रम जाल को
फैलाने में
और सदा रहता है
तुम्हारा प्रयास
कि तुम्हारी बातों पर किया जाये
यकीन
जिससे तुम साध सको
आकाओं के हित ।

# प्रद्युम्न कुमार सिंह

Sunday, 19 November 2017

****वे बचकर निकलते हैं सकुशल****

इतने चतुर हैं वे
जो तलाश लेते हैं
दुर्गम और असुरक्षित
स्थानों पर भी
पहुँचने के लिए
सुविधाजनक रास्ता
उन्हें आभास है
चुटहिल होने की
पीड़ा का
वे समझते हैं
त्यौरियों की नज़ाकत
और उनकी हक़ीकत को
क्योंकि वे वाकिफ होते है
त्यौरियों के चढने और उतरने के
हुनर से
इसीलिए वे भाँप लेते है
समय से पूर्व संभावित खतरा
वे खुद को अलगा लेते हैं
खतरे से पहले
और बचकर निकलते हैं
सकुशल

Sunday, 5 November 2017

**** वे पिता ही थे*****

वे पिता ही थे
कभी भी नही कराते थे
जो एहसास
अपने जर्जर होने का
अपनी विवाइयों के दर्द
कई रातो के जागने की
व्यथा का
क्योंकि वे देखना चाहते थे
हमेशा ही
बच्चों को खुश
वे उनकी ही खुशी में
ढूंढ लेते थे
खुद की खुशी
उनकी चहकन में
भूल जाते थे
जीवन की फीकी होती
खुशियों की तासीर
वे नहीं चाहते थे
कभी भी उनका दर्द
जान सके उनके बच्चे
और उनकी खुशियों के क्षणों में
बन जाये बाधक
इसीलिए वे छिपाते थे
हमेशा ही अपने बच्चों से
अपना दर्द

Sunday, 17 September 2017

****ओ ऋषि ! सुनते हो****

ओ ऋषि !
सुनते हो
गुस्सा करना
ऋषि की फितरत नहीं है
अरजा !
तुम्हारी पुत्री  थी
राजा दण्ड की
अदण्डता ही थी
अरजा के साथ उसने
दुराचार किया
ऋषि तुमने ठीक ही
किया
उसे दण्डित करके
आखिर मामला तुम्हारे सम्मान से
जुड़ा था
किसी ऐरे गैरे से जुड़ा होता तो
तुम भी निश्चित ही
हाथ बांधे खड़े मिलते
दण्ड के पक्ष में
और पिला रहे होते
नसीहतों की जड़ी बूटी
कभी छोटे कपड़ों की,
कभी समय की,
कभी चरित्र की
और बेचारी अरजा
विवश होती
नीचा मुख किये हुए
तुम्हारी ज्ञान भरी बातें
सुनने को
वह बेचारी तो
समझ भी न पाती कि
उसका अपराध
क्या हैं ?
उसके पाप क्या हैं ?
जिनके एवज में
कमतर पड़ गये
उसके पुण्य
पहली बार जब
तामड़ा और  घूमर पर
थिरके थे उसके पांव
और हर्षित हुआ था
उसका मन
उसे पता ही नहीं था
उसकी यह खुशी अधिक
दिनों तक
स्थाई रहने वाली नही
एक दिन किसी अय्यास की
निगाह निहोरेगी
उसके तराशे
शरीर की मांसपेशियों को
और वह प्रयास करेगा
नोच कर खत्म कर दे
तुम्हारी अस्मिता
बन्धक बना लेगा वह
तुम्हारी स्त्री को
और करेगा अट्टहास
अपनी इस विजय पर
जिसे वह जीत सकता था
प्रेम से
किन्तु उसे तो 
प्रेम से थी नफ़रत
छिटकते रहे टूट टूटकर
पायल के घुंघरू
बस्तर के आसपास
मद्धिम पड़ती रही
उनकी पीड़ा की खनक
लुटता रहा उनका
विश्वास
सुनकर कर भी
खौफ से मौन रहीं
नदियाँ
और मौन रहे पर्वत
दण्ड तुम्हारी उदण्डता ने
रच डाला
अपनी ही धरती का कैसा
भविष्य
ऋषि तुमने ठीक किया
जो दण्डित किया
उदण्डता और उसके पोषक
दण्ड को
शायद पहली बार तुमने
अपने ऋषि होने का उचित
फर्ज निबाहा था
गर्म ख़ून के आस्वाद  को
रोकने का
शायद यह प्रथम प्रयास था
जब भोग को अधिकार
समझने को
अपराध मानकर किया गया था
दण्डित
ऋषि यह तुम्हारा ऋण
आज भी उधार है
धार के माथे पर
शायद पहली बार
किसी ऋषि का गुस्सा
आम जन की जगह फूटा था
समन्ती हठधर्मिता पर
कारण कुछ भी रहें हो
मामला तनुजा रही हो
या कोई और 
ऋषि तुमने पहली बार
फूंका था बस्तर की धरती में
बगावत का बिगुल
और लगाया था हरे घावों पर
मरहम
हे ऋषि एक बार फिर से
महसूस हुई है तुम्हारी जोरदार
जरूरत
देख रहा है युग तुम्हारी ओर
आशा भरी निगाहों से
आओ फिर युग पुरुष
और निभाओ अपना फर्ज
देकर दण्ड को दण्ड

Saturday, 16 September 2017

****यशोधरा*****

यशोधरा !
तुमको पढाया गया
पति परमेश्वर की सेवा का पाठ
जैसे पढ़ाया जाता है
एक बच्चे को
कलम और कागज के
रिश्ते की कहानी
खेलने कूदने से अधिक
कपड़ों की हिफ़ाजत के
तौर तरीके
जिससे रखा जा सके उन्हे
अधिक समय तक
स्वच्छ और साफ
तुम्हे हमेशा से
देखा जाता रहा है
कोफ्त निगाहों से
जैसे देखे जाते हैं
दुर्दिन में आकाशीय बादल
जिनकी वीभत्स गड़गड़ाहट के बीच
पनपती हैं
बहुत से आशंकाएं
उनके चाल चरित्र को लेकर
हमेशा से तुम्हे समझा गया
मात्र भोग की वस्तु
जो केवल जानती है
आज्ञा पालन की बात
लौटा दी जाती रही
तुम्हारी वेदनाएं
जमाने की फौलादी
दीवारों से
मानव कल्याण के नाम पर
तुम रही हमेशा शान्त
और प्रतिरोध रहित
क्योंकि तुम्हे अभी भी
उम्मीद थी
स्त्री जीवन का मतलब
छीनना नहीं होता
अपितु होता है
समाज को कुछ देना
तुम करती रही अपने साथ
हमेशा छल
इसीलिए कभी भी नही
जुटा सकी
प्रतिबद्धताओं से मुकरने का
का साहस
और ना ही समझा पाई
अपनी असहमतियों के
पीड़ायुक्त भाव
तुम आज भी
देखी जाती हो तन्मयता के साथ
उसी वेश में
दूर जलती हुई आग के
साथ
तुम आज भी नहीं बता पाई 
अपनी अनहद
बल्कि सिमटी रही शालीन
भाषा सी
नियमों उपनियमों के
बन्धन में
खुद को बचाये रखने की
जद्दोजहद में
अब भी तुम बचाये हुए हो
एक अदृश्य आधार
जिसके.इर्दगिर्द
आज भी घूमते हैं
तुम्हारे करुण स्वर
जिन्हें हमेशा की तरह
एक बार फिर से
कर जायेगा
अनसुना
यशोधरा !
कैसी स्त्री हो तुम
रोक नहीं पाई जो
पति प्रयाण
कहां चूक गये तुम्हारे वे
तीक्ष्ण हथियार
जिनके प्रभाव से
घोर तपस्या में रत
यति मुनि भी छोड़ देते थे
तप का विचार
यशोधरा !
निश्चित रूप से तुम्हे करना होगा
पुनः मन्थन अपने
स्त्रीत्व का
कैसे और कहाँ पड़ गई
तुम कमजोर ?
जबकि तुमसे ताकतवर
निकली
बेजान वीणा
जो खींच ले गई शौतन की तरह
तुमसे तुम्हारा सिद्धार्थ
कहो कहो यशोधरा
कहीं ऐसा तो नहीं !
ऊब चुका हो तुमसे
तुम्हारा पुरुष
तुम्हे शीघ्र करनी होगी
इसकी पड़ताल
तुम्हे जानने होंगे
सिद्धार्थ के मुख मोड़ने के
वास्तविक कारण
जिसके कारण एक झटके में
उसने तोड़ दिया
युगों युगों का तुम्हारा
विश्वास
यशोधरा !
कहीं ऐसा तो नहीं
तुम्हारे स्त्रीत्व से हार गया हो
सिद्धार्थ
और छिपाने को अपनी
हिकारत
मोड़ लिया हो खुद से ही
खुद का मुख
जिससे बची रहे
उसकी झूठी शान
और बचा रहे उसका
डिगा ईंमान
यशोधरा कुछ तो बोलो
दुनिया की आंखों में पड़े
राज से पर्दा उठाओ
क्योंकि तुम्हारी चुप्पी ही
प्रबल बनाती है सैकड़ो बुद्ध
और प्रताड़ित करती है
स्त्रीत्व को
जिसकी आड़ में आज भी 
ढूढ़ लेते है संयास का
सुरक्षित बहाना
और थोप देते हैं
यशोधरा के सर पर
अनन्त काल तक चलने वाली
चुप्पी
यशोधरा !
शायद तुम्हारी चुप्पी में ही
छुपे हैं
सिद्धार्थ के बुद्ध बनने के
बीज
नहीं तो कब का धराशायी हो गया होता
बुद्ध और उसका कुनबा ।
         प्रद्युम्न कुमार सिह

Thursday, 14 September 2017

****प्रात पवन*****

प्रात पवन के साथ
खुल रही थी
आँखों के पास आँख
ऊंघते बागों में
खिल थी प्रात की धूप
खत्म हुई
चाँद की चाँद मारी
सिमट गये हैं भूतों के डेरे
लूट गई वह कैसे
जीवन की स्वर्णिम
बेला
कलम की रफ़तार में
हनक के बीच
घुट रहा था जीवन का संगीत
सुलझन और उलझन
की गठरी बांधे
घूम रहा वह गली गली
तरस रहा था वह विश्वास के
एक अदद को
आँखों के पास
खुल रही थी आँख

*****भेद रहा था****

भेद रहा था
खग कुल का
कलरव
भूतल का नीरव तल
खोज रहा धान्य के
अवशेष
क्षुधा मिटाने को सप्रयास
तृषित नैनों की
मद्धिम ज्योति मे
घुलती थी आदिम भूख
कोटरों के कोनों से
किलकित नव उत्साह
बुन रहा था स्वप्न नये
तम आलोकित जगती का
भाल
भरता था उनमे
जीवन का भार
झर रही थी स्वप्निल धूप
खिल रहीं थी जिसमे
बचपन की सुरभि
सोये थे जिसमें अनन्त विचार
इसी से व्यग्र था
उसका मन
खैर ख्वाब की बातों में डूबा
पहुँच गया कब वह
क्षितिज के पार
सूरज ढलने से पहले
चिन्ता थी शेष एकमात्र
गा रहा था अब भी
उसका हुलसित मन
धंसा हुआ
जीवन संघर्षों के बीच

****सौदागरों के शब्द****"

सौदागरों के शब्द
बुनते हैं
भाषाओं के मखमली जाल
जिसे
महसूसा जा सकता है
क्षण के आखिरी पड़ाव तक
और उस उलझाव में
किया जा सकता है
बिना किसी लाव लश्गर के
बात करने का
तकल्लुस
बजाये जा सकते है
बेसुरे राग
उड़ाये जा सकतें हैं फूलों से
वफादार  मक्खियों के झुण्ड
जिन्होने चूसकर
पुष्प रस
तोड़ दी
सारी सीमाएं
अपने मक्खी होने की
सौदागरों के शब्द
बुनते हैं भाषाओं के मखमली
जाल

Tuesday, 12 September 2017

**** वे नहीं चूकते****

वे नही चूकते !
करने से अपना बखान
वे पकड़ते हैं बार बार
बाह्य कर्ण की भित्ति
और सिकोड़ते हैं
दूर तलक विस्तृत ललाट को
जैसे किसी ने कर दी हो
घर में शिकायत
इसीलिए ऊभन चूभन
के साथ
वे दिखते हैं चिन्तित
जिससे जान सकें लोग
उनकी कार्यशीलता
और उनकी लगन
जिसका परिणाम अभी तक
रहा है सिफर
हाव भावों की चुहुलबाजी द्वारा
वे दर्शाना चाहते हैं
फर्जी मज़बूरी
जिह्वा और वाणी के माध्यम से
वे सिद्ध कर देना चाहते हैं
अपने को बेकसूर
वे जता देना चाहते हैं
अभी भी नहीं भूलें हैं
अपनी कही हुई बातें
जिसकी प्रतिपूर्ति हेतु
वे अब भी हैं प्रयासरत
वे भांपते है
लबो की खामोशी
बनाया जा सके जिसको
खुद के बचाव का
कारगर हथियार
किन्तु वे भूल जाते है
खामोश आवाजे जब भी
मुखर होती हैं
बदल देती हैं जहान का
नक्शा
खो जाती है जिसमें
सियासत की बहुत सी
मगरूर सत्ताएं
और और आबाद हो जाती है
नवीन सभ्यताएं
और नवीन संभावनाएं ।

Wednesday, 6 September 2017

*****यार तुम कितने खुदगर्ज हो*****

यार! तुम कितने
खुदगर्ज हो
आप ही आप
दिखने को हुए अधीर
दुधली उजारी में
अंधियारे कितने लिए
फिर रहे हो तुम
आदमी की कीमत
हांक से अपनी आंक रहे
यार ! तुम कितने
खुदगर्ज निकले
हाथों में तुरीण व शमशीर लिए
आसन की धौंस में चिपके
नैतिक को अनैतिक बताने पर
तुले रहे
बांधन में सावन
और सावन में सौत लिए
खार से खर की महारथ
तुम समझ बैठे
सम्भव है लोभ क्रोध के बस
यह सब तुम करते हो
इस्पात तोड़ने की  लिए
भरौनी
मुर्चे से अभी तक
तुम अकड़ रहे
शायद समझ तुम्हारी 
अभी नही हुई दुरुस्त
जीवन की कड़ियों की
समझ अभी तुम्हे नहीं हुई
गुस्से का हल फितूर नहीं
सहन करने को
हर कोई मज़बूर नही
घमण्ड तुम्हारा आकाश अटा
शायद तुम पहले से
कमजोर हुए
अक्कड़ बक्कड़  का
यह कोई खेल नहीं
खेल सके जो हर कोई
समय रहते सम्भल जाओ भाई
जीवन मे इसका
कोई मोेल नहीं
जब जब अनाधिकार
अपहृत हुई है सीता
पता तो होगा ही तुम्हे
क्या क्या रावण पर है बीता

Tuesday, 5 September 2017

***** दम घोटू वर्जनाएं*****

फैली थीं
अथाह सागर सी
अन्तस के वीराने में
उठती रही थी
उत्तुंग तरंगों सी
भाव प्रवण संवेदनाएं
जब तब
घात प्रतिघात से
करती थी घायल
और तोड़ देना चाहती थीं
वेदनाओं के शैलाब युक्त
तटबंध
वे हो जाना चाहती थी
उच्र्छ्खंल
ज्वार भाटों सी
जिससे निर्मित किया जा सके
एक उन्मादी आक्रोश
और तोड़ी जा सकें
वक्त वेवक्त की
दम घोटू वर्जनाएं

Tuesday, 29 August 2017

*****व्याल****"

व्याल !
छिपे रहते थे
जो कभी जंगलों में
और अपने में लपेट
लेते थे
निराह जानवरों को
जिनकी चीखें
अक्सर खत्म हो
जाती थीं
जंगली झाड़ियों और खोह के
विवायनों के मध्य
अब जबकि खत्म हो रहें हैं
पहाड़ और जंगल
तब उन्ही व्यालों ने
बना ली  हैं
अपनी बांबियां
हमारे और तुम्हारे बीच स्थित
रिक्थों में
और वे आज भी
अपनी देहयष्टि की मजबूत
जकड़न में
समाज को
जकड़ने के लिए
रहते है उत्सुक
जिससे छूटने की छटपटाहट
आज भी बदस्तूर जारी है ।

Sunday, 20 August 2017

****त्रिलोचन के लोचन से कल मैने देखा****

त्रिलोचन जी को समर्पित एक रचना
त्रिलोचन के लोचन से कल मैने देखा
उसी वेश में उसी देश में
भीख मांगता जर्जर स्याह तन
फौलादी सोच और आत्मविस्तार के साथ
अपने ही कुनबे से अलगाया ठुकाराया हुआ
टूटे मन के साथ
मठाधीशो के मठों से विरक्त
शेर सरीखा घायल भूखा प्यासा
उद्दीप्त नेत्र तप्त भाल
समय के झंझावतों से संघर्षरत
एक अपराजेय योद्धा
त्रिलोचन के लोचन से कल मैने देखा
रोक नही पाया खुद को आप
पूंछा जाकर पास
दद्दा मिलता है क्या ?
इस मुट्ठी भर दाने से
उसने मेरी ओर उठाकर आंख देखा
और जवाब प्रश्न का मेरे
कुछ यूं दिया
नहीं देखता पेट खाली
पाप और पुण्य का विश्लेषण
खाली पेट मात्र रोटी से भरता है
खुद का उत्तर मैने पाया
जीवन का सत्य
उसी में समाया

****गुलाबी साजिशें*****

ढाँपो खुद का
बहशीपन
कृषको श्रमिकों
और बच्चों से
रोको अब अपना
गत आगत का
अनर्गल ज्ञान
छोड़ो आयात और निर्यात के
लुभावने धन्धे की बात
पोतो उन तमाम
तश्वीरों को
जिनसे आती है बू
जाति धर्म और कुनबे की
घृणा और नफ़रत की
खत्म कर दो
उन दरीचों को
जिनसे रोशनी की जगह
फैलता है
कभी न खत्म होने वाला
अंधेरा
छीन ली जाती हैं
जिनसे जीने की
आजादी
और छीन ली जाती हैं बची हुई
तुम्हारी सांसे
आड़ में जिनकी
रची जाती हैं
तुम्हे खत्म करने की
गुलाबी साजिशें

Friday, 11 August 2017

**** एक मौन****

एक मौन
शून्य
कुछ अनकहे
शब्द
ताराखचित नभ का
ओर छोर
और उसमे खोया हुआ
एक मासूम सा तारा 
झिलमिलाती रोशनी
और डूबते उतराते चेहरे
जानने समझने की
नाकाम कोशिशें
रचती हैं
एक रहस्यमयी
वियावन
जहां पर खत्म हो
जाता है
अंधेले और उजाले का
फर्क
और खत्म हो जाता है
धरती और आकाश का
अन्तर
और खत्म हो जाते
वे सारे भेद
जिनके कारण अक्सर
पैदा हो जाते है
गहरे मतभेद
जिनसे निकलने की
कोशिश में
चले जाते है
और गहरे धंसते

Saturday, 5 August 2017

*****वे आज भी डरते है*****

वे आज भी
डरते है
तमाम सुरक्षा इंतजामों के
बावजूद
Z औरy जवानों की
पुख्ता निगहबानी में
तमाम नीतियां से
सुरक्षित
बनाये जाने पर भी
तमगों के ऊपर तमगें
टांके जाने और
ईमानदारी और हितैषी
होने का
दावा पेश करने के
बावजूद भी
वे डरते हैं
गरीब निहत्थे लोगों के
खाली पेटों और उठे हुए
हाथों से
जो कांपती रूह के
साथ
बुलन्द करते हैं
खौफ के विरुद्ध
अपनी आवाज

Tuesday, 1 August 2017

*****आशा की नव पौध*****

प्रपंचों में जो उगता है
छलछन्दों में जो ढलता है
नाक भौं में जो फर्क
समझता है
रौब औरों पर गठता है
शोषित दुर्बल संग
झगड़ता है
पाप पुण्य के
खेल खेलता है
डैनों के बिन उड़ता है
ऐसे मानी कलहंसो को
धूल चटाने आया हूं
बिन बूदों की बारिस में
उस प्रबल पुंज की
वेदी से
ध्वजा उखाड़ने
आया हूं !
जीवन के सन्देशों में
जीवन का राग बजाने
आया हूं
आपा की पगधोई में
जीवन बेल है जो बोई
वह बेल खिलाने
आया
सतयुग द्वापर त्रेता कलियुग
से भिन्न इक
युग नया बनाने
आया हूं
जीवन के घनघोर
वियावन में
आशा की नव पौध जमाने
आया हूं

*****आशिक की मज़ार*****

लोग जाने क्यों ?
छोड़ जाया करते है
अपनों को बेगानों सा !
आशिक की मजार के पास
और चले जाया करते हैं
बेफिक्र हो
वक्त के थपेड़ों को सहने को
मजबूर लाचार होकर
सूरज ढलने से पहले ही
रिश्तों की रस्सी ले
बांधने को 
बरेदियों की तरह  
आ जाया करते हैं
न जाने कौन सी
खता थी उनकी ?
जो छोड़ जाया करते हैं
उसी जगह
जहां थी आशिक की मजार  
जाने कब तक यूं ही ?
अभिशप्त जीवन
जीने को
मजबूर होती रहेंगी हूरे 
आखिर कब तक ?
सीने में दर्द छुपा 
सहने को
मजबूर होती रहेंगी
कब मिल पायेगा इंशाफ
हूरों को और कब
स्वावलमबन के साथ
स्वयं को संभालेगी 
लोग जाने क्यों ?
छोड़ जाया करते है
अपनों को बेगानों सा
आशिक की मजार के पास |

Saturday, 29 July 2017

*****भोथरे उपाय*****

कवि !
तुम इतना डरे हुए
क्यों हो ?
कही तुमने जुर्म के
खिलाफ
कविता तो नहीं
लिख दी
कही भदेश भाषा के
अनगढ़ शब्दों को तो नहीं
पिरो दिये
जिसके कारण सारे गिद्ध
तुम्हे नोच खाने को
उतावले हैं
पर कवि तुम डरना
नहीं
इन बेइमान गिद्धो से
आज तक इन्होंने ही
रोक रखी थी
मानव बनने की
राह
और जब तुम जैसा
निर्भीक कवि
इन्हे चुनौती दे रहा है
ये डराने के सारे
भोथरे
उपाय कर रहे हैं

Wednesday, 26 July 2017

*****उनकी मंशा है*****

उनकी मंशा है
मठा डाल
कुशों की भांति
जड़ो को नष्ट करने की
इसीलिए वे ढोते हैं
मटकियों में मठा
और नापते है हर दफा
मटकी की सतह
वे बचाये रखना चाहते हैं
मठा और जड़ के बीच की
वैमनस्यता
जिससे वेे दे सकें
कार्य को मंशानुरूप
अंजाम
उन्हे तुमसे भी नफ़रत है
कुशों की भांति
क्योंकि वे कुश ही थे
जो बार बार फेर देते थे
इरादों पर पानी
और भरते थे
हा से अहा तक की
हुंकार
जिसकी गर्जन से हर बार
पड़ता है
उन्हें सहमना
जो खिलाफ था
उनकी फितरत के
इसीलिए वे नष्ट कर देना
चाहते हैं
सदा सदा के लिए
कुशों की जड़ों सा
तुम्हारी जड़ों को
जिससे रोका जा सके
तुम्हारी गति
और तुम्हारा वेग

***** वे तुमसे छीन लेना चाहते हैं*****

वे तुमसेे छीन लेना
चाहते है
तुम्हारी आजादी
काट देना चाहते हैं
तुम्हारे उठे हुए हांथ
खड़ा कर देना चाहते हैं
खौफ का जिन्न
इसीलिए करना चाहते हैं
शक्ति की नुमाइस
उत्पन्न कर सकें जिससे
एक अनाम डर
आड़ में जिसकी तोपी
जा सकें
अनगिन कायराना हक़ीकतें
वे मौन कर देना चाहते हैं
हलक की आवाज
बांध देना चाहते हैं
तुम्हारी जिह्वा
जिससे बड़ी सहजता से
ठहराया जा सके तुम्हे
गुनहगार
वे खोद देना चाहते है
एक अलंघनीय खाई
जिसे लांघ सकना हो जाये
लगभग असम्भव
ऊँची दीर्घा पर खड़े हो वे
करना चाहते है
घोषणा बतौर हाकिम
उनकी बनाई परिखाओं को
लांघना
उन्हे बर्दास्त नही
वे बना देना चाहते हैं
पीढियों को गुलाम
जिन्हे प्रयोग किया जा सके
मशीनों की भांति
हांका जा सके पशुओं की तरह
लेकिन वे भूल जाते हैं
इतिहास के क्रूर पन्नों को
जिन्होंने कभी नहीं बख्शा
अपने समय में नायकत्व का दंभ
भरने वाले
शक्ति में अंधे पड़ चुके
गंधाते घमण्ड को

Friday, 14 July 2017

*****फिर से*****

मै जानता हूं
पेड़ों की शाखाएं
जो नये पत्तो संग
मनाती हैं उत्सव
मधुर मधुप की
थाप पर करती है
शास्त्रीय नृत्य
और उनके साथ ही
फिजाओ' में घोलती है
बसंत
खुशियों के बीच झूमते
वृक्ष नदी और पहाड़
आज भी परेशान हैं
टूटन और खत्म होती
प्रजातियों के
रिसते जख्मों से
यद्यपि कारवां निकल चुका है
बहुत आगे
किन्तु जख्म
हरे होने पर फिर से
आमादा हैं

Thursday, 29 June 2017

****यात्राएं****

यात्राओं से पूर्व ही
वे तय कर लेते हैं
सपनो का पूरा करने का
फासला
और वे निकल पड़ते है
अहर्निश यात्रा पथों पर
बेफिक्र हो
क्योंकि उन्हे यकीन होता है
अपनी यात्राओं पर
वे जताना चाहते हैं
की गई यात्राओं की
सार्थकता
जिससे उन्हे घोषित किया जा सके
उन्हे जनहित में
और शक सुबह से दूर
वे कर सके
सपनों की पूर्ति तक
निर्बाध यात्राएं

Monday, 1 May 2017

**** उर्मिला****

बहुत अधिक करती रही
प्रेम उर्मिला
इसीलिए करती रही वह
सम्मान
पति की इच्छाओं का
भले ही त्यागने पड़े
इसके लिए उसे
वे सारे सपने,
सारे सुख
जो स्त्री होने से पूर्व देखती है
एक लड़की
और होती है खुश
इन सब के बावजूद
उसने नहीं की कभी भी
शिकायत
न राजा से न पति
बल्कि स्वीकार किया उसने
एक अज्ञातवास,
उसने सहा एक ऐसा
संत्रास
जिसकी वह हकदार भी न थी
क्योंकि वह एक स्त्री थी
जिसका वजूद उसके
स्त्रीत्व में समाया था
वह सीता जैसे
नही फूंक सकी
विद्रोह का बिगुल
न ही परिचित करा सकी
संसार को
अपनी गहन पीड़ा से
उसके भावों को समझने मे
असफल रहे बाल्मीकि
और असफल रहे
तुलसी बाबा
और असफल रहा
आज का विशिष्ट कवि भी
कारण साफ था
क्योंकि सभी के थे अपने अपने
ध्येय
और अपने अपने मंतव्य
इसीलिए आज भी उपेक्षित है
उर्मिला
और पूज्य है
विद्रोह की हुंकार भरने वाली
सीता
क्योकि अत्यधिक समर्पित
प्रेमिकाएं और पत्नियाँ
स्थापित नहीं कर सकती
प्रेम की नवपरिभाषाएं
नाही गढ सकती हैं
प्रेम के प्रेमत्व को
ठीक समय बताती
हाथ में बंधी घड़ी सी
जो नहीं पकड़ पाती
बीते हुए लम्हे

Thursday, 27 April 2017

**** प्रताड़ना के ताप में****

प्रताड़ना के ताप में
उफनता हुआ संताप
विकरित हो गया तलाक में
मजहब के ठेकेदारी में
आजमाया सबने
अपने अपने अंदाज में
किसी ने दी दुहाइयां
किसी ने मजाक बनाया
स्थितियाँ थी
करती रहीं इंकलाब
इतने के बाद भी
बढ़ता रहा विवाद
कोई रसूल के नाम पर
कोई नफ़रत के नाम पर
हर कोई करता रहा
रोजगार
न उनसे था मतलब
न इनसे था कोई मतलब
किन्तु हमदर्द के नाम पर
वफा की बेचते रहे
खाँटी अल्फाज
मतलब साफ़ था
अपने अपने खुदाओं के
नाम पर शोरगुल करना
मात्र काम था उनका
स्त्री तो स्त्री थी
सहती रही
पुरुष का सभी अंदाज
प्रताड़ना के ताप में
उफ़नता हुआ संताप

Thursday, 13 April 2017

*****कुछ नगद कुछ उधार देखो*****

कुछ नकद कुछ उधार देखों
बाजार उदार देखो
रुपैय्या का कमाल देखो
मर्जी से अपनी आवै जाय देखो
                    सरे आम चौराहों में
                    बिकती भूख देखो    
                     बेहद सस्ती बेहद मंदी
                     भेष बदलते तश्कर देखो
राव रंग के लश्कर में
धारदार अस्त्र शस्त्र ले
जड़ काटते पहरुआ देखो
सोती दुनिया के अंदाज निराले 
                     भरते जिनसे कोष पोश देखो
                      लाभ कमाने के
                      रंगीले ढंग देखो
                      रोज रोज फंदे चूमते लोग
सुखा बाढ़ ओला से त्रस्त
माली हालत किसान की देखो
क्षण-क्षण ढुलकते
अश्कयुक्त नेत्र देखो
                    कारण जिनके होते कारे गात देखो
                    बीच बाजार होती लाज नीलाम देखो  
                    बेईमानी का धंधा अपनाए 
                    जेबकतरों की कतार देखो
टूटते आशने मिट्टी के देखो
अस्थिपंजर टूटे लढी के देखो
चमचमाती कार की रफ़्तार देखो
रोज-रोज बढ़ते रेट देखो
                     नोटों के बीच ओट देखो
                     भूखे नंगों की झेप देखो
                      बोरो में भरे नोटो की खेप देखो       
                      आपस में लड़ते लोग देखो
स्वार्थ में रक्त रंजित
नफ़रत के खंजर देखो
रोटी के साथ फोटो खिचती
शानदार तश्वीर देखो
                  मुक्ति बेचता बाजार देखो
                 तीक्ष्ण है बहुत इसकी धार देखो               
                 शवों की सवारी करते सवार देखो
                  नीले पीले रंग हजार देखो
अपनो का छुपा प्यार देखो
चूहे बिल्ली सी तकरार देखो
सावधान मानव !
समय रहते संभल जाओ
                     सीख लो तुम भी जीना
                     दूर होकर इनसे