यार! तुम कितने
खुदगर्ज हो
आप ही आप
दिखने को हुए अधीर
दुधली उजारी में
अंधियारे कितने लिए
फिर रहे हो तुम
आदमी की कीमत
हांक से अपनी आंक रहे
यार ! तुम कितने
खुदगर्ज निकले
हाथों में तुरीण व शमशीर लिए
आसन की धौंस में चिपके
नैतिक को अनैतिक बताने पर
तुले रहे
बांधन में सावन
और सावन में सौत लिए
खार से खर की महारथ
तुम समझ बैठे
सम्भव है लोभ क्रोध के बस
यह सब तुम करते हो
इस्पात तोड़ने की लिए
भरौनी
मुर्चे से अभी तक
तुम अकड़ रहे
शायद समझ तुम्हारी
अभी नही हुई दुरुस्त
जीवन की कड़ियों की
समझ अभी तुम्हे नहीं हुई
गुस्से का हल फितूर नहीं
सहन करने को
हर कोई मज़बूर नही
घमण्ड तुम्हारा आकाश अटा
शायद तुम पहले से
कमजोर हुए
अक्कड़ बक्कड़ का
यह कोई खेल नहीं
खेल सके जो हर कोई
समय रहते सम्भल जाओ भाई
जीवन मे इसका
कोई मोेल नहीं
जब जब अनाधिकार
अपहृत हुई है सीता
पता तो होगा ही तुम्हे
क्या क्या रावण पर है बीता
Wednesday, 6 September 2017
*****यार तुम कितने खुदगर्ज हो*****
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