फैली थीं
अथाह सागर सी
अन्तस के वीराने में
उठती रही थी
उत्तुंग तरंगों सी
भाव प्रवण संवेदनाएं
जब तब
घात प्रतिघात से
करती थी घायल
और तोड़ देना चाहती थीं
वेदनाओं के शैलाब युक्त
तटबंध
वे हो जाना चाहती थी
उच्र्छ्खंल
ज्वार भाटों सी
जिससे निर्मित किया जा सके
एक उन्मादी आक्रोश
और तोड़ी जा सकें
वक्त वेवक्त की
दम घोटू वर्जनाएं
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