Tuesday, 29 August 2017

*****व्याल****"

व्याल !
छिपे रहते थे
जो कभी जंगलों में
और अपने में लपेट
लेते थे
निराह जानवरों को
जिनकी चीखें
अक्सर खत्म हो
जाती थीं
जंगली झाड़ियों और खोह के
विवायनों के मध्य
अब जबकि खत्म हो रहें हैं
पहाड़ और जंगल
तब उन्ही व्यालों ने
बना ली  हैं
अपनी बांबियां
हमारे और तुम्हारे बीच स्थित
रिक्थों में
और वे आज भी
अपनी देहयष्टि की मजबूत
जकड़न में
समाज को
जकड़ने के लिए
रहते है उत्सुक
जिससे छूटने की छटपटाहट
आज भी बदस्तूर जारी है ।

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