Tuesday, 1 August 2017

*****आशिक की मज़ार*****

लोग जाने क्यों ?
छोड़ जाया करते है
अपनों को बेगानों सा !
आशिक की मजार के पास
और चले जाया करते हैं
बेफिक्र हो
वक्त के थपेड़ों को सहने को
मजबूर लाचार होकर
सूरज ढलने से पहले ही
रिश्तों की रस्सी ले
बांधने को 
बरेदियों की तरह  
आ जाया करते हैं
न जाने कौन सी
खता थी उनकी ?
जो छोड़ जाया करते हैं
उसी जगह
जहां थी आशिक की मजार  
जाने कब तक यूं ही ?
अभिशप्त जीवन
जीने को
मजबूर होती रहेंगी हूरे 
आखिर कब तक ?
सीने में दर्द छुपा 
सहने को
मजबूर होती रहेंगी
कब मिल पायेगा इंशाफ
हूरों को और कब
स्वावलमबन के साथ
स्वयं को संभालेगी 
लोग जाने क्यों ?
छोड़ जाया करते है
अपनों को बेगानों सा
आशिक की मजार के पास |

No comments:

Post a Comment