Saturday, 16 September 2017

****यशोधरा*****

यशोधरा !
तुमको पढाया गया
पति परमेश्वर की सेवा का पाठ
जैसे पढ़ाया जाता है
एक बच्चे को
कलम और कागज के
रिश्ते की कहानी
खेलने कूदने से अधिक
कपड़ों की हिफ़ाजत के
तौर तरीके
जिससे रखा जा सके उन्हे
अधिक समय तक
स्वच्छ और साफ
तुम्हे हमेशा से
देखा जाता रहा है
कोफ्त निगाहों से
जैसे देखे जाते हैं
दुर्दिन में आकाशीय बादल
जिनकी वीभत्स गड़गड़ाहट के बीच
पनपती हैं
बहुत से आशंकाएं
उनके चाल चरित्र को लेकर
हमेशा से तुम्हे समझा गया
मात्र भोग की वस्तु
जो केवल जानती है
आज्ञा पालन की बात
लौटा दी जाती रही
तुम्हारी वेदनाएं
जमाने की फौलादी
दीवारों से
मानव कल्याण के नाम पर
तुम रही हमेशा शान्त
और प्रतिरोध रहित
क्योंकि तुम्हे अभी भी
उम्मीद थी
स्त्री जीवन का मतलब
छीनना नहीं होता
अपितु होता है
समाज को कुछ देना
तुम करती रही अपने साथ
हमेशा छल
इसीलिए कभी भी नही
जुटा सकी
प्रतिबद्धताओं से मुकरने का
का साहस
और ना ही समझा पाई
अपनी असहमतियों के
पीड़ायुक्त भाव
तुम आज भी
देखी जाती हो तन्मयता के साथ
उसी वेश में
दूर जलती हुई आग के
साथ
तुम आज भी नहीं बता पाई 
अपनी अनहद
बल्कि सिमटी रही शालीन
भाषा सी
नियमों उपनियमों के
बन्धन में
खुद को बचाये रखने की
जद्दोजहद में
अब भी तुम बचाये हुए हो
एक अदृश्य आधार
जिसके.इर्दगिर्द
आज भी घूमते हैं
तुम्हारे करुण स्वर
जिन्हें हमेशा की तरह
एक बार फिर से
कर जायेगा
अनसुना
यशोधरा !
कैसी स्त्री हो तुम
रोक नहीं पाई जो
पति प्रयाण
कहां चूक गये तुम्हारे वे
तीक्ष्ण हथियार
जिनके प्रभाव से
घोर तपस्या में रत
यति मुनि भी छोड़ देते थे
तप का विचार
यशोधरा !
निश्चित रूप से तुम्हे करना होगा
पुनः मन्थन अपने
स्त्रीत्व का
कैसे और कहाँ पड़ गई
तुम कमजोर ?
जबकि तुमसे ताकतवर
निकली
बेजान वीणा
जो खींच ले गई शौतन की तरह
तुमसे तुम्हारा सिद्धार्थ
कहो कहो यशोधरा
कहीं ऐसा तो नहीं !
ऊब चुका हो तुमसे
तुम्हारा पुरुष
तुम्हे शीघ्र करनी होगी
इसकी पड़ताल
तुम्हे जानने होंगे
सिद्धार्थ के मुख मोड़ने के
वास्तविक कारण
जिसके कारण एक झटके में
उसने तोड़ दिया
युगों युगों का तुम्हारा
विश्वास
यशोधरा !
कहीं ऐसा तो नहीं
तुम्हारे स्त्रीत्व से हार गया हो
सिद्धार्थ
और छिपाने को अपनी
हिकारत
मोड़ लिया हो खुद से ही
खुद का मुख
जिससे बची रहे
उसकी झूठी शान
और बचा रहे उसका
डिगा ईंमान
यशोधरा कुछ तो बोलो
दुनिया की आंखों में पड़े
राज से पर्दा उठाओ
क्योंकि तुम्हारी चुप्पी ही
प्रबल बनाती है सैकड़ो बुद्ध
और प्रताड़ित करती है
स्त्रीत्व को
जिसकी आड़ में आज भी 
ढूढ़ लेते है संयास का
सुरक्षित बहाना
और थोप देते हैं
यशोधरा के सर पर
अनन्त काल तक चलने वाली
चुप्पी
यशोधरा !
शायद तुम्हारी चुप्पी में ही
छुपे हैं
सिद्धार्थ के बुद्ध बनने के
बीज
नहीं तो कब का धराशायी हो गया होता
बुद्ध और उसका कुनबा ।
         प्रद्युम्न कुमार सिह

No comments:

Post a Comment