प्रात पवन के साथ
खुल रही थी
आँखों के पास आँख
ऊंघते बागों में
खिल थी प्रात की धूप
खत्म हुई
चाँद की चाँद मारी
सिमट गये हैं भूतों के डेरे
लूट गई वह कैसे
जीवन की स्वर्णिम
बेला
कलम की रफ़तार में
हनक के बीच
घुट रहा था जीवन का संगीत
सुलझन और उलझन
की गठरी बांधे
घूम रहा वह गली गली
तरस रहा था वह विश्वास के
एक अदद को
आँखों के पास
खुल रही थी आँख
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