Sunday 17 September 2017

****ओ ऋषि ! सुनते हो****

ओ ऋषि !
सुनते हो
गुस्सा करना
ऋषि की फितरत नहीं है
अरजा !
तुम्हारी पुत्री  थी
राजा दण्ड की
अदण्डता ही थी
अरजा के साथ उसने
दुराचार किया
ऋषि तुमने ठीक ही
किया
उसे दण्डित करके
आखिर मामला तुम्हारे सम्मान से
जुड़ा था
किसी ऐरे गैरे से जुड़ा होता तो
तुम भी निश्चित ही
हाथ बांधे खड़े मिलते
दण्ड के पक्ष में
और पिला रहे होते
नसीहतों की जड़ी बूटी
कभी छोटे कपड़ों की,
कभी समय की,
कभी चरित्र की
और बेचारी अरजा
विवश होती
नीचा मुख किये हुए
तुम्हारी ज्ञान भरी बातें
सुनने को
वह बेचारी तो
समझ भी न पाती कि
उसका अपराध
क्या हैं ?
उसके पाप क्या हैं ?
जिनके एवज में
कमतर पड़ गये
उसके पुण्य
पहली बार जब
तामड़ा और  घूमर पर
थिरके थे उसके पांव
और हर्षित हुआ था
उसका मन
उसे पता ही नहीं था
उसकी यह खुशी अधिक
दिनों तक
स्थाई रहने वाली नही
एक दिन किसी अय्यास की
निगाह निहोरेगी
उसके तराशे
शरीर की मांसपेशियों को
और वह प्रयास करेगा
नोच कर खत्म कर दे
तुम्हारी अस्मिता
बन्धक बना लेगा वह
तुम्हारी स्त्री को
और करेगा अट्टहास
अपनी इस विजय पर
जिसे वह जीत सकता था
प्रेम से
किन्तु उसे तो 
प्रेम से थी नफ़रत
छिटकते रहे टूट टूटकर
पायल के घुंघरू
बस्तर के आसपास
मद्धिम पड़ती रही
उनकी पीड़ा की खनक
लुटता रहा उनका
विश्वास
सुनकर कर भी
खौफ से मौन रहीं
नदियाँ
और मौन रहे पर्वत
दण्ड तुम्हारी उदण्डता ने
रच डाला
अपनी ही धरती का कैसा
भविष्य
ऋषि तुमने ठीक किया
जो दण्डित किया
उदण्डता और उसके पोषक
दण्ड को
शायद पहली बार तुमने
अपने ऋषि होने का उचित
फर्ज निबाहा था
गर्म ख़ून के आस्वाद  को
रोकने का
शायद यह प्रथम प्रयास था
जब भोग को अधिकार
समझने को
अपराध मानकर किया गया था
दण्डित
ऋषि यह तुम्हारा ऋण
आज भी उधार है
धार के माथे पर
शायद पहली बार
किसी ऋषि का गुस्सा
आम जन की जगह फूटा था
समन्ती हठधर्मिता पर
कारण कुछ भी रहें हो
मामला तनुजा रही हो
या कोई और 
ऋषि तुमने पहली बार
फूंका था बस्तर की धरती में
बगावत का बिगुल
और लगाया था हरे घावों पर
मरहम
हे ऋषि एक बार फिर से
महसूस हुई है तुम्हारी जोरदार
जरूरत
देख रहा है युग तुम्हारी ओर
आशा भरी निगाहों से
आओ फिर युग पुरुष
और निभाओ अपना फर्ज
देकर दण्ड को दण्ड

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