Thursday, 14 September 2017

*****भेद रहा था****

भेद रहा था
खग कुल का
कलरव
भूतल का नीरव तल
खोज रहा धान्य के
अवशेष
क्षुधा मिटाने को सप्रयास
तृषित नैनों की
मद्धिम ज्योति मे
घुलती थी आदिम भूख
कोटरों के कोनों से
किलकित नव उत्साह
बुन रहा था स्वप्न नये
तम आलोकित जगती का
भाल
भरता था उनमे
जीवन का भार
झर रही थी स्वप्निल धूप
खिल रहीं थी जिसमे
बचपन की सुरभि
सोये थे जिसमें अनन्त विचार
इसी से व्यग्र था
उसका मन
खैर ख्वाब की बातों में डूबा
पहुँच गया कब वह
क्षितिज के पार
सूरज ढलने से पहले
चिन्ता थी शेष एकमात्र
गा रहा था अब भी
उसका हुलसित मन
धंसा हुआ
जीवन संघर्षों के बीच

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