बहुत अच्छा लगता है
जब तुम करते हो
विकास की बातें
तुम्हारी बातों से
थरथराने लगतें हैं
पर्वत
गहराने लगता है
उजालों के बीच
अंधेरा
उदास हो जाती
सारी प्रकृति
चमक उठती हैं
तुम्हारी आंखों की पुतलियां
जोड़ देते हो
जब तुम
हर बात को अपनी
नकली भावनाओं से
और बजाने लगते हो
बात बात पर
अन्य पुरुषों सी तालियां
अपनी कुटिल चालों से
छीन लेते हो
पशुओं के रंभाने की
आवाजें
लहलहाते खेतों की
हरियाली
तुम ढांप देते हो
कंक्रीट के जंगलों से
गांवों नगरों के
सहज रास्ते
प्रदूषण के नये-नये
उपायों से
जिससे घुलता जाता है
पल प्रतिपल
श्वासों में
विषाक्त ज़हर
और महसूस होने लगता है
जीवन भार
इसके बावजूद भी तुम
तुम तुले हुए हो
विकास की भोथरी
बातों के भ्रम जाल को
फैलाने में
और सदा रहता है
तुम्हारा प्रयास
कि तुम्हारी बातों पर किया जाये
यकीन
जिससे तुम साध सको
आकाओं के हित ।
# प्रद्युम्न कुमार सिंह
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