Tuesday, 29 November 2016

*****वह जानते हैं*****

वह जानते हैं
बाखूबी
अपना कार्य करना
उनके हाथों का रुखापन
गालों की झुर्रिया
और तन का जर्जरापन
एवं बालों का सन सा
सफेद होना
यूँ ही नहीं है
वरन् अनवरत जिम्मेदारियों के
संवहन का परिणाम हैं
आज जिस अन्न को खाकर
गर्व से हम करते हैं
चौड़ा सीना
वह कुछ और नहीं है
बल्कि उसके श्रम बिन्दुओं का
संघनित रूप है
जो श्वेद बिन्दुओ के रूप में
मोती सी चिलचिलाती धूप में
उसके तन से फूटती हैं |

*****तुम कहते हो चुप रहूं*****

तुम कहते हो
चुप रहूं
मेरे बोलने से खटती है
देशभक्ति
जो भी करो तुम
मूक दर्शक बन
मात्र श्रोता बन
बैठा रहूं
यदि बोलना भी चाहूं
तो तुम्हारी भक्ति के
कसीदों में बोलूं
करीनों सा उन्हे
सजाऊं
जिन्हे तुमने तैयार
किये हैं
मेरी मौत के समान के
रुप में
आखिर यह सब जानते हुए भी
तेरे पक्ष में कैसे बोलूं
कैसे खुद की
हत्या जैसा
जघन्य अपराध
अपने ही हाथों से
कर लूं

****कहन शैली की अनोखी अदा के साथ*****

कहन शैली की
अनोखी अदा के साथ
तुम बड़ी आसानी से
झुठला देते हो
अपनी ही कही बात
और अपने ही कद को
कर लेते हो लघु
शायद तुम भूल गये हो
जनता देवता है
जो देती है
तुम्हे उड़ने की शक्ति
इतराने की सामर्थ्य
किन्तु नही देती है कूबत
तानाशाह बनने की
नही देती इजाजत
जज़बातों से खेलने की
और नहीं देती अधिकार
गाढे की कमाई लुटाने की
वह उम्मीद करती है
उसका तन मन धन
सुरक्षित रहे ।
और तुम हो
करते हो प्रयास
कहन की अदा से उसे ही
झुठलाने का

Sunday, 27 November 2016

****रात का घना अँधेरा****

रात का घना अंधेरा
स्याह चेहरे के साध
सामने जब हो जाता है
खड़ा
बढने लगता है डर
सियारों और ऊदविलावों की
आवाज के बीच
झांकने लगते हैं
बहुत से अनजाने
अनपहिचाने चेहरे
जिन्हें पहले कभी
देखा था
याद नहीं आ रहा ठीक से
फिर भी यह एहसास होता  है
पहले भी कभी मुलाकात
हो चुकी है इनसे
ये डरे सहमे लोग
जिनकी हड्डिया ही
अब शेष हैं
बिगड़ चुकी है पूरी तरह से
उनके चेहरों की रूहत
इन सब के बावजूद
अभी भी उनके अंदर
शेष है
एक जिजीविषा
जिन्दा रहने की
और जीवित है
संघर्ष का एक दरिया
जो अब भी कर रहा है
प्रतिरोध
सियारों और बिडालों की
की डरावनी आवाजों का ।

Saturday, 26 November 2016

*****वे सपने बेचते हैं*****

वे बेचते है सपने
खत्म होते लम्हों के
दम तोड़ती आशाओं के
राफ्ता राफ्ता रेंगती
जिन्दगी के
वे बेचते हैं सपने
अपने पराये के
छुआछूत के अभिशाप के
अमीरी गरीबी के अन्तर के
कुआँ और खाई के
दुःख और सुख के
वे बेचते हैं सपने
अपने ही लाभ के
जिससे तुम्हे दिया जा सके
पुनः पुनः धोखा
और उलझाया जा सके
मायावी उलझन में
शायद तुम समझ सको कभी
मेरी बात को
क्योंकि सपने होते ही हैं
सिर्फ देखने के
अनुभव करने के
न कि हासिल करने के

Wednesday, 23 November 2016

*****नीली फ्रांक वाली लड़की*****

नीली फ्रांक वाली
लड़की एक
खिलखिलाती धूप सी
झांक रही थी
वातायनों से बार बार
बच गया हो जैसे कोई
नवल पत्ता
आखिरी अवशेष
रह गया जो झड़ने से
पतझर में शेष
करता हो जैसे अब भी
इंतजार वह
खुद की बारी का
धूप के महीन
कतरन सी
चिलक रही वह
शाख के बीच
भटके राही सा
अलमस्त अटका
उसके पथ का रथ
चिपका हो जैसे
मकड़ी के जालों सा
दीवारों का जर्जरपन
टूट चुकी है उसके ख्वाबों की
पगडंडी
स्वर विश्रंखलित हुये
राहों की उसके
भग्न हुये जाग्रित उसके
स्वप्न
भारित यात्राओं के फूल
दे रहे उसके मन को शूल
विचलित हुआ है मन
उसका आज
पर आशाओं के हरसिंगार
खिले
ठोकरों से मरहम ले
खिल उठे जीवन के राग
करते थे वे जीवन में
सुख का संचार

Thursday, 17 November 2016

*****ये जो धतूरे हैं****

ये जो धतूरे हैं
चाहते हैं कुछ कहना
पर वे नही चाहते
सुनना
न ही चाहते हैं
शरीक होना
इनकी खुशी के
पलों में
न ही गम के
आंसुओं में
पर वे चाहते है
इनकी सुन्दरता को
नकारना
और अपनी मनोकामना
पूर्ण करना
हम नही चाहते
दूसरे भी हो सकें
लाभांवित इनसे

Wednesday, 16 November 2016

****पोथियों के बीच से****

पोथियों के बीच से
निकलते शब्द
शोर नहीं करते
वे खामोशी से कह
जाते है
बड़ी बात
और समझने वाले
समझते है
पोथियो के शब्द
विद्रोह नहीं करते
जनाब
जरा गौर से तो
देखो
ये शब्द खामोश तो
होते हैं
पर वेजुवान नहीं होते
और इनकी यही खामोशी
तोड़ जाती है
सूरमाओं का अदम्य
साहस
प्रेयसियों के प्रेमपाश
और तोड़ जातें हैं
जर्जर स्वाभिमान की
मजबूत बेड़ियाँ
और दिखा देते है
अपनी खामोश ताकत का
तर्जुबा

Tuesday, 15 November 2016

*****सौदागरों के शब्द*****

सौदागरों के शब्द
बुनते हैं
भाषाओं के मखमली जाल
जिसे
महसूसा जा सकता है
क्षण के आखिरी पड़ाव तक
और उस उलझाव में
किया जा सकता है
बिना किसी लाव लश्गर के
बात करने का
तकल्लुस
बजाये जा सकते है
बेसुरे राग
उड़ाये जा सकतें हैं फूलों से
वफादार  मक्खियों के झुण्ड
जिन्होने चूसकर
पुष्प रस
तोड़ दी
सारी सीमाएं
अपने मक्खी होने की
सौदागरों के शब्द
बुनते हैं
भाषाओं के मखमली
जाल

Monday, 14 November 2016

****बदहवास रुक्के****

बदहवास रुक्के
आबाद हुक्के
खुश होने को
सर अपने अभी भी
कुछ बाल हैं
क्योकि आज भी
गंजों के सर
ताज है
चाहत है अचरज
भरी
शौतन सी सामने
खड़ी
ग्वार बाजरे की
बात चली
भूतों की आवाज
मिली
माखन रोटी की
हाट सजी
ताली दै दै जे
भाजै
सोई सच्चा पूत
कहावै
अपनो को शीतलता
बांटे
औरन को ड्योढी
पर बांधै
तंत्र जंत्र सब कर
भय का भूत
चढावै
ऐसा कब तलक चलेगा
भाई
तब तक जब तक
मरै न
कलुवा की माई

Wednesday, 9 November 2016

*****भूत के वर्तमान से*****

बार-बार बोलना
बार-बार तोलना
बार-बार मोलना
अच्छा नहीं होता
यह ढोर डंगर सा
मोलना तोलना और
बोलना
फितरत बन गई है
शायद
मिटाना होगा
हाँ मिटाना होगा
गढने होंगे मानवता के
नये मान
जीवन और जंग की
बात
परिभाषित करनी
होगी फिर से
परिभाषायें
तभी जीती जा
सकती है
शर्म और वेहयायी
और तभी लगाई जा
सकती है
शर्त
भूत के वर्तमान से

Monday, 7 November 2016

*****रात के आखिरी पहर में*****

रात के आखिरी
पहर में
कलम दवात लेकर
तुम लिख रहे हो
आक्रोश
अंधेरे के विरुद्ध
तुम शायद दुनिया के
पहले इंसान हो
जो सोचते हो कि
अंधेरे में लिखे तुम्हारे
शब्द
तुम्हे अंधेरे से लड़ने का
हौसला देंगे
और एक दिन तुम
जीत जाओगे
अंधेरेे में अंधेरेे से

*****कवि तुम इतना डरे हुये क्यों हो ?*****

कवि तुम इतना डरे हुए
क्यों हो ?
कही तुमने जुर्म के
खिलाफ
कविता तो नहीं
लिख दी
कही भदेश भाषा के
अनगढ़ शब्दों तो नहीं
पिरो दिये
जो सारे गिद्ध
तुम्हे नोच खाने को
उतावले हैं
पर कवि तुम डरना
नहीं
इन बेइमान गिद्धो से
आज तक इन्होंने ही
रोक रखी थी
मानव बनने की
राह
और जब तुम जैसा
निर्भीक कवि
इन्हे चुनौती दे रहा है
ये डराने के सारे
भोथरे
उपाय कर रहे हैं

*****तुम्हारे शहर में *****

तुम्हारे शहर में
शब्दों ने मेरे
बगावत कर दी
साथ चलने को कहा
तो अदावत कर ली
तुम्हारे शहर में
शब्दों ने मेरे
बगावत कर दी
निकली थी जगहें कुछ
परिचित सी
सुकूं मिला था
रूह को थोड़ा
मगर शब्दों की
बेवफाई में
दूर होती गईं वे
तुम्हारे शहर में
शब्दों ने मेरे
बगावत कर दी

गुलमोहर का फूलना अकस्मात नहीं था न ही प्रकृति का कोई वरदान था बाल्कि उसका फूलना आक्रोश था उन्मादी सूर्य के प्रति एक दृढ अवलम्ब था आशा की डूबती किरण के प्रति उसका फूलना तपिस से दुलकते आंसुओं के प्रति एक शांत्वना थी गुलमोहर का फुलना अकस्मात नहीं था बल्कि कोयल के राग का प्रेम आलाप था जो कौओं की हंसी के विरुद्ध एक उद्घोस था जो हर युद्ध की शुरुआत से पूर्व द्वारपालो द्वारा बजाया जाता है

*****पोथियों के बीच से निकलते शब्द*****

पोथियों के बीच से
निकलते शब्द
शोर नहीं करते
वे अपनी बात बड़ी
खामोशी से
कह जाते है
और समझने वाले
समझते है
पोथियो के शब्द
जो विद्रोह करते !
जनाब
जरा गौर से तो देखो
ये शब्द खामोश तो
होते हैं
पर वेजुवान नहीं होते
और उनकी यही खामोशी
तोड़ जाती है
सूरमाओं का साहस
प्रेयसियों के प्रेमपाश
और तोड़ जाती है
स्वाभिमान की जर्जर
बेड़ियाँ
और दिखा देती है
अपनी खामोश ताकत का
तर्जुबा

Saturday, 5 November 2016

*****तुम हार रहे थे****

तुम हार रहे थे
पर तुम्हे गुमान था
शाख पर उलटे लटके
चमगादड़ो सा
जिन्हे न अपनी
परवाह होती है
न ही तुम्हारी
उन्हे गर्व होता है
अपने घुग्घू होने का
अपने मेहमानों का
जो आ जाते हैं
समय की हड़बड़ी में
जल्दी
और उनकी ही शाख पर
जल्द ही
उल्टा लटक
गुनगुनायेंगे
सांझ का गीत
और यह तब तक
जब तक भिंसार की
आहट न मिलेगी