टूट रहा स्वप्न
जन जन का
टूट रही
उफनती आशाएं
जन मन की
खत्म हो रहे
आशाओं के रास्ते
सजीले
और छूट रही
पगडंडियाँ सारी
उम्मीदों की
तोड़ रहे दम
भूख से बिलखते सारे
छा गयी हैं धुंध
सारे आसमान में
छा गई गम की काली बदली
समस्त जहान में
कैसे सुनेगा वह
तेरे मन के गीत सुहाने
आ रहे हैं जब अंधड़
चारों ओर से
जिनमें नहीं है आस
किसी जलधार की
ऐसे में वह चातक सा तो नहीं
सुन सकता जो गर्जना तेरी
नही चल रहा
कोरे आश्वासनों से
अब काम उसका
अब उसे भी चाहिए
अपने हक़ का कोई पैमाना
पिरोये हो जिसमे सूत्र अनेक
गढ़ सके जिनसे
वह भी नए प्रतिमान
नयी आशाएं व इच्छायें
अब वह नही देना चाहता
घुटने अपना दम
फिजूल के वसूलों के साये में
वह भी अब चाहता है जीना
अपने हिस्से की जिन्दगी
अपने हिस्से की खुशियाँ
इसीलिए वह तोड़ देना चाहता है
सारे व्यर्थ के सारे बंधनों को
आशाओं प्रत्याशाओं को
अब वह भी नदियों की
कल कल के साथ खेलना चाहता है
पहाड़ों के साथ करना चाहता है
अपने मन की बात
पेडों के पतझड़ के बाद
नया वसंत देखना चाहता है
और आकाश के परिंदों सा
उड़ना चाहता है खुले आसमान में
निर्बाध रूप से
एक कोने से दूसरे कोने तक |
Tuesday 11 June 2019
****एक कोने से दूसरे कोने तक****
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