वो जो बदल रहा था
गिरते और चढते पारे सा
अपना मिजाज़
और हंसे जा रहा था लगातार बनावटी हंसी
कौन था
वो जो कर रहा था
निगहबानी
उनकी ही शर्तो पर
एक अनाम मौन के साथ
कौन था
वो जो करता था
उजासियों को भी बदनाम
अपनी ही नादानियों पर
थामें हुए था ढेसर सहारा
कौन था
वो जो बजा रहा था
अपने ही अंदाज में
अपने शातिर दिमाग की ताली
कर रहा था खुराफात की जुगाली
कौन था
वो जो बदल रहा था
समझ को नासमझी में
अपने ही जाल में खुद को उलझा रहा था
बिन बात की बात बना रहा था
आखिर कौन था
वो जो दरख्तों सा
एक के बाद एक बिखरता जा रहा था
छिन्न भिन्न भाल मस्तक हो रहा था
फिर दुहाई उसी की दे रहा था
कौन था
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