उम्मीद की धुंधली
किरण के साथ
वे कल की तरह आज भी
खड़े हैं हांसिये पर
अब भी सहेजे हुए हैं
चिरंतन की तरह निरन्तर को
तमाम वंदिशों के बाद भी
वे संजोये हुए हैं
कुछ कर गुजरने का माद्दा
यद्यपि उन्हे मालूम हैं
हौंसलों से ज्यादा जरूरी है
भूख के लिए रोटी
इसीलिए बार बार की
चेतावनियों के बाद भी
अनायास ही गूंज उठती है
सनसनाती हुंकार
जिससे हिल उठती हैं
आज भी
सजे हुए कंगूरों की चूले
जो उन्हें बाध्य करती है
हांसिये की ओर देखने के लिए
शायद यही भय
उन्हें करता है
विवश
हासिये पर खड़े लोगों के
पक्ष में
बोलने के लिए
और ना चाहते हुए भी
उन्हे बोलना पड़ता है
उपेक्षित लोगों के पक्ष में
Friday, 3 May 2019
****उम्मीद की धुंधली किरण*****
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