माफ करना
बिटिया !
उनके शब्दों जैसे
मोहपास
नहीं मेरे पास
जो पक्ष में खड़े हो सकें
दूषित होने के बावजूद
न ही
थोथे शब्दों का सशक्त
समूह ही है
संवेदनाओं को व्यक्त करने हेतु
जाति धर्म के मोटे चश्मे भी
नहीं है
जिससे गढ और पढ सकूँ
नवीन मायाजाल
और आँसुओं की जगह
भर सकूं
जहर का गुबार
सत्य के स्थान पर
लिख सकूं
असत्य से युक्त
कहानियों के शब्द
कलंक की जगह
लिख सकूं
उज्जवल अल्फाज
माफ करना !
बिटिया
मैं नहीं बन सकता
किसी हिंसक भीड़ का
हिस्सा
मेरी आंखों का पानी
अभी भी शेष है
संवेदनाओं के सस्वर नाद
अभी जीवित हैं
मैं अपने ऊबडखाबड़
शब्दों के साथ
जिन्दगी की अन्तिम सांस तक
ललकारता रहूंगा
कायरों को
उनके गुनाहों के लिए
Sunday, 30 June 2019
*****माफ करना बिटिया!*****
****एक आदमी****
एक आदमी
उमड़ते घुमड़ते
बादलों को देखकर
छाते की मरम्मत
करवाता है
नये कपड़ों को
सहेज कर रखने का
इंतजाम करता है
पुराने कपड़ों को
भीगने पर पहनता
कूड़े से खचाखच भरी
नालियों की दुर्दशा के लिए
सरकारी तन्त्र को
दोषी ठहराता है
पौधे लाकर
उम्मीदों की नर्सरी लगाता है
बारिश न होने पर
चिल्ला चिल्लाकर
ईश्वर को गारियाता है
किन्तु वही आदमी
मतलब निकलने पर
भूल जाता है
अपने आदमी होने का
मतलब
घटाओं के घिरने
और बादलों के गड़गड़ाने पर
एक आदमी बार बार
यही करता है
Friday, 28 June 2019
**** आपातकाल****
हमें गुजारा जा रहा है
आपातकाल के कठिन दौर से
छीने जा रहें हैं
धीरे धीरे
हमारे सभी अधिकार
मसलन अभिव्यक्ति,
प्रतिरोध, और जीवित रहने के
हमारी प्रतिबद्धताएं
विवश है
स्वयं को गिरवी रखने के लिए
यद्यपि असहमितियों के बीच
फेंके जा रहें हैं
चाँदी के जूतों के
एवज में सहमति के
खनकते कुछ चिल्लर
समानता और समग्रता के नाम पर
निर्मित की जा रहीं हैं
कुछ अधूरी परिभाषाएं
और परोसी जा रहीं हैं
नवीनता के रूप में
नये रंग रोगन के साथ
जिन्हे स्वीकारा जा रहा है
जबरन थोपे गये
आपातकाल की तरह।
Thursday, 20 June 2019
****हांसिये पर खड़ा युधिष्ठिर****
आज भी!
चली जाती हैं चालें
दांव में आज भी
लगाई जाती है
एक स्त्री की कीमत
पितामह आज भी दिखते है विवश
और लाचार होती हैं वधुएंं
नंगा करते हुए
दुःशासनों के समक्ष
यद्यपि आज बदल चुका
जुएं का तरीका
कल तक युधिष्ठिर
हारता था जुएं में एक स्त्री को
और स्त्रियां आज खुद हारती हैं
अपना दांव
शकुनियों के हाथ
जिसे नवाज़ दिया जाता है
आधुनिकता के नाम से
और आंसू बहाने वालों को
पुराने ख्यालात से
यही आज के समय का
नंगा सच है
जिसे अभी और नंगा किया
जाना बाकी है
क्योंकि समय के साथ ही साथ
चलता रहता है
द्यूत क्रीड़ा का घृणित खेल
जिसके मायावी पांसे फेंकता है
समय का शकुनि
और पराजित होता है
हांसिये पर खड़ा युधिष्ठिर I
Wednesday, 19 June 2019
****घातक बन चुके धुंए के रूप में****
घातक है
बच्चों का मरना
क्योंकि बच्चों का मरना
मात्र बच्चों का
मरना नहीं है
न ही यह घटना मात्र है
बल्कि यह एक दुर्घटना है
दम घुटती
संवेदनाओं की
नियति के द्वारा
बार बार जिसे दुहराया जा रहा है
हर बार की तरह
इस बार भी गायब
कर दिया जायेगा
सरकारों और डॉक्टरों के
आरोपों प्रत्यारोपों के बीच
महत्वपूर्ण यह मुद्दा
जांच के नाम पर
गठित कर दी जायेंगी टीमें
और हम भूल जायेंगे
एक बार फिर से
अभिभावको और बच्चों के
उत्पीड़न का दंश
कुछ एंकरनुमा अजीब जीव
अपनी आयेंगे अपने
रौबीले अंदाज में
और फिर से करेंगे
पीत रिपोर्टिग
जिसके एवज में
उन्हें कर दिया जायेगा
पुरस्कार द्वारा उपकृत
इसी के साथ दब जायेंगी
पूंजी और सत्ता की
हनक के बीच
दम तोड़ती
सिसकती किलकारियां
और स्वीकार कर लेगा
नियति का खेल मानकर
हांसिये पर खड़ा बन्दा
कुछ समय के रुदन के पश्चात
पुनः मिल जायेगा
झण्डा थामे हुए
उन्ही झण्डाबदरों के साथ
जिन्हे उससे अधिक
फिक्र होती है
अपने कुनबे को
सुरक्षित रखने की
इस प्रकार अनवरत
चलता रहेगा
बच्चों के मरने और मारने का
शाश्वत क्रम
और चलता रहेगा
नेताओं के बिगड़े बोलों का
खौफनाक खेल
सेंकी जाती रहेंगी
स्वार्थ की रोटियां
परोसा जाता रहेगा जिन्हे
चुनाव के वक्त
लालच के घी में डुबोकर
और खेमों में बंटे हम
आतिशबाजियों के साथ
स्वागत के जयघोष में
उड़ा देंगे
मरते बच्चों की
चीखती सांसे
गुबार बन चुके धुंएं के रूप में |
Monday, 17 June 2019
*****बच्चे मर रहें हैं****
बच्चे मर रहें है
चमकी के कहर से नहीं
बल्कि चमकी के भय से
जिम्मेदार खामोश हैं
चमकी की चमक से
रैलियों मे साथ रहने वाले
निकल चुके हैं
राज्य की परिधि से
बहुत दूर है
नीति नियन्ता व्यस्त हैं
डाक्टरों की सुरक्षा में
महामहिम इंतजार में हैं
किसी अमीर बच्चे के
मरने के
चुंधिया गई हैं
मीडिया की आंखे
वे नहीं देख पा रहीं
बच्चों के बिगड़े हालात
उन्हे बच्चों से अधिक
लापरवाह डॉक्टर का पिटना
बड़ी घटना लग रही है
लोग सहमें हैं
चमकी के कहर से नहीं
बल्कि अपने खेवनहारों की
बेरुखी से
जो अकारण ही
पहुँचा दिये जाते हैं
उनको और उन जैसे
तमाम लोगों को
चमकी जैसे बुखार के
मुहानों पर
जहाँ से बच निकलना
वैसे ही नहीं होता आसान
जैसे हासियों को त्यागकर
नई लीक बनाना ।
Sunday, 16 June 2019
****वे जो पापकार्म खाते हैं****
वे जो पापकार्न खाते है
किसी मासूम के
क्यों कहा जाय?
किसी अमीर के साथ होने वाली
दुर्घटना पर
निकालते है कैडिल मार्च
सांझ ढलते ही
ठंडा पड़ जाता है
जिनका आक्रोश
और कर लेते हैं समझौता
उन्ही के रहनवारों से
जिनके द्वारा दिये जाते हैं
ऐसे घटनाक्रमों को
अंजाम
वे जो पापकार्न खाते हैं
शाम होते ही गटक जाते हैं
मदिरा की घूंटों के साथ
सुबह के किये गये
अन्याय और भूल जाते है
कैण्डिल मार्य के वजूद को
क्योंकि होते हैं ऐसे लोग
अनाम भीड़ का
सिर्फ एक भाग
समय के साथ जो बिखरकर
खो जाती है
अपने अस्तित्वहीन वजूद में
जिसका आदि और अंत
टिका होता है
आंच के आधार पर
जो एक दिन उन्हे भी
खत्म कर देती है
भुट्टे से बने पापकार्न की तरह
Friday, 14 June 2019
****उन्होने कभी शिमला नहीं देखा****
उन्होने कभी शिमला
नहीं देखा
फिर भी जानते हैं
शिमला को
दिन प्रति दिन
बदतर होते जा रहे
कराहते जलाशयों को
बेदर्द जमाने के पैरोकारों को
जिन्होने बना रखे है
कृत्रिम अभाव के हालात
मज़बूर हो जाये जिससेे लोग
और सुगभ हो सकें
उनके व्यापारों का
सुभारम्भ
उन्होने कभी शिमला
नही देखा
फिर भी जानते हैं
शिमला को
क्योंकि उनके रोम रोम में
समाया है
एक खूबसूरत शिमला
जिसकी खूबसूरती को
चट कर रहें हैं
पूंजी के आवारा पशु
बढते जा रहें हैं
दिनोदिन जिनके झुण्ड
जिन्हे रोक पाना
लगभग असम्भव है ।
उन्होंने कभी शिमला
नहीं देखा
लगभग हर शहर तब्दील हो चुका है
एक त्रासदयुक्त शिमला में
जिसमे जूझना पड़ता है हर रोज
पानी जैसी
रोजमर्रा की समस्याओं से
उनके खिलाफ
नारे लगाती आवाम को
जो गुर्राते भेडि़यों के डर से
प्रत्येक शाम लौट जाती है
खाली हांथ अपने घरों को
Tuesday, 11 June 2019
****एक कोने से दूसरे कोने तक****
टूट रहा स्वप्न
जन जन का
टूट रही
उफनती आशाएं
जन मन की
खत्म हो रहे
आशाओं के रास्ते
सजीले
और छूट रही
पगडंडियाँ सारी
उम्मीदों की
तोड़ रहे दम
भूख से बिलखते सारे
छा गयी हैं धुंध
सारे आसमान में
छा गई गम की काली बदली
समस्त जहान में
कैसे सुनेगा वह
तेरे मन के गीत सुहाने
आ रहे हैं जब अंधड़
चारों ओर से
जिनमें नहीं है आस
किसी जलधार की
ऐसे में वह चातक सा तो नहीं
सुन सकता जो गर्जना तेरी
नही चल रहा
कोरे आश्वासनों से
अब काम उसका
अब उसे भी चाहिए
अपने हक़ का कोई पैमाना
पिरोये हो जिसमे सूत्र अनेक
गढ़ सके जिनसे
वह भी नए प्रतिमान
नयी आशाएं व इच्छायें
अब वह नही देना चाहता
घुटने अपना दम
फिजूल के वसूलों के साये में
वह भी अब चाहता है जीना
अपने हिस्से की जिन्दगी
अपने हिस्से की खुशियाँ
इसीलिए वह तोड़ देना चाहता है
सारे व्यर्थ के सारे बंधनों को
आशाओं प्रत्याशाओं को
अब वह भी नदियों की
कल कल के साथ खेलना चाहता है
पहाड़ों के साथ करना चाहता है
अपने मन की बात
पेडों के पतझड़ के बाद
नया वसंत देखना चाहता है
और आकाश के परिंदों सा
उड़ना चाहता है खुले आसमान में
निर्बाध रूप से
एक कोने से दूसरे कोने तक |