Tuesday, 29 August 2017

*****व्याल****"

व्याल !
छिपे रहते थे
जो कभी जंगलों में
और अपने में लपेट
लेते थे
निराह जानवरों को
जिनकी चीखें
अक्सर खत्म हो
जाती थीं
जंगली झाड़ियों और खोह के
विवायनों के मध्य
अब जबकि खत्म हो रहें हैं
पहाड़ और जंगल
तब उन्ही व्यालों ने
बना ली  हैं
अपनी बांबियां
हमारे और तुम्हारे बीच स्थित
रिक्थों में
और वे आज भी
अपनी देहयष्टि की मजबूत
जकड़न में
समाज को
जकड़ने के लिए
रहते है उत्सुक
जिससे छूटने की छटपटाहट
आज भी बदस्तूर जारी है ।

Sunday, 20 August 2017

****त्रिलोचन के लोचन से कल मैने देखा****

त्रिलोचन जी को समर्पित एक रचना
त्रिलोचन के लोचन से कल मैने देखा
उसी वेश में उसी देश में
भीख मांगता जर्जर स्याह तन
फौलादी सोच और आत्मविस्तार के साथ
अपने ही कुनबे से अलगाया ठुकाराया हुआ
टूटे मन के साथ
मठाधीशो के मठों से विरक्त
शेर सरीखा घायल भूखा प्यासा
उद्दीप्त नेत्र तप्त भाल
समय के झंझावतों से संघर्षरत
एक अपराजेय योद्धा
त्रिलोचन के लोचन से कल मैने देखा
रोक नही पाया खुद को आप
पूंछा जाकर पास
दद्दा मिलता है क्या ?
इस मुट्ठी भर दाने से
उसने मेरी ओर उठाकर आंख देखा
और जवाब प्रश्न का मेरे
कुछ यूं दिया
नहीं देखता पेट खाली
पाप और पुण्य का विश्लेषण
खाली पेट मात्र रोटी से भरता है
खुद का उत्तर मैने पाया
जीवन का सत्य
उसी में समाया

****गुलाबी साजिशें*****

ढाँपो खुद का
बहशीपन
कृषको श्रमिकों
और बच्चों से
रोको अब अपना
गत आगत का
अनर्गल ज्ञान
छोड़ो आयात और निर्यात के
लुभावने धन्धे की बात
पोतो उन तमाम
तश्वीरों को
जिनसे आती है बू
जाति धर्म और कुनबे की
घृणा और नफ़रत की
खत्म कर दो
उन दरीचों को
जिनसे रोशनी की जगह
फैलता है
कभी न खत्म होने वाला
अंधेरा
छीन ली जाती हैं
जिनसे जीने की
आजादी
और छीन ली जाती हैं बची हुई
तुम्हारी सांसे
आड़ में जिनकी
रची जाती हैं
तुम्हे खत्म करने की
गुलाबी साजिशें

Friday, 11 August 2017

**** एक मौन****

एक मौन
शून्य
कुछ अनकहे
शब्द
ताराखचित नभ का
ओर छोर
और उसमे खोया हुआ
एक मासूम सा तारा 
झिलमिलाती रोशनी
और डूबते उतराते चेहरे
जानने समझने की
नाकाम कोशिशें
रचती हैं
एक रहस्यमयी
वियावन
जहां पर खत्म हो
जाता है
अंधेले और उजाले का
फर्क
और खत्म हो जाता है
धरती और आकाश का
अन्तर
और खत्म हो जाते
वे सारे भेद
जिनके कारण अक्सर
पैदा हो जाते है
गहरे मतभेद
जिनसे निकलने की
कोशिश में
चले जाते है
और गहरे धंसते

Saturday, 5 August 2017

*****वे आज भी डरते है*****

वे आज भी
डरते है
तमाम सुरक्षा इंतजामों के
बावजूद
Z औरy जवानों की
पुख्ता निगहबानी में
तमाम नीतियां से
सुरक्षित
बनाये जाने पर भी
तमगों के ऊपर तमगें
टांके जाने और
ईमानदारी और हितैषी
होने का
दावा पेश करने के
बावजूद भी
वे डरते हैं
गरीब निहत्थे लोगों के
खाली पेटों और उठे हुए
हाथों से
जो कांपती रूह के
साथ
बुलन्द करते हैं
खौफ के विरुद्ध
अपनी आवाज

Tuesday, 1 August 2017

*****आशा की नव पौध*****

प्रपंचों में जो उगता है
छलछन्दों में जो ढलता है
नाक भौं में जो फर्क
समझता है
रौब औरों पर गठता है
शोषित दुर्बल संग
झगड़ता है
पाप पुण्य के
खेल खेलता है
डैनों के बिन उड़ता है
ऐसे मानी कलहंसो को
धूल चटाने आया हूं
बिन बूदों की बारिस में
उस प्रबल पुंज की
वेदी से
ध्वजा उखाड़ने
आया हूं !
जीवन के सन्देशों में
जीवन का राग बजाने
आया हूं
आपा की पगधोई में
जीवन बेल है जो बोई
वह बेल खिलाने
आया
सतयुग द्वापर त्रेता कलियुग
से भिन्न इक
युग नया बनाने
आया हूं
जीवन के घनघोर
वियावन में
आशा की नव पौध जमाने
आया हूं

*****आशिक की मज़ार*****

लोग जाने क्यों ?
छोड़ जाया करते है
अपनों को बेगानों सा !
आशिक की मजार के पास
और चले जाया करते हैं
बेफिक्र हो
वक्त के थपेड़ों को सहने को
मजबूर लाचार होकर
सूरज ढलने से पहले ही
रिश्तों की रस्सी ले
बांधने को 
बरेदियों की तरह  
आ जाया करते हैं
न जाने कौन सी
खता थी उनकी ?
जो छोड़ जाया करते हैं
उसी जगह
जहां थी आशिक की मजार  
जाने कब तक यूं ही ?
अभिशप्त जीवन
जीने को
मजबूर होती रहेंगी हूरे 
आखिर कब तक ?
सीने में दर्द छुपा 
सहने को
मजबूर होती रहेंगी
कब मिल पायेगा इंशाफ
हूरों को और कब
स्वावलमबन के साथ
स्वयं को संभालेगी 
लोग जाने क्यों ?
छोड़ जाया करते है
अपनों को बेगानों सा
आशिक की मजार के पास |