साँप तुम
असभ्य थे
डसते थे मालूम था
यह सबको
तुम्हारे प्रति
इसीलिये नजरिया भी
वैसा ही बना था
तुम्हारे वंशजों ने
मनाये थे उत्सव
अपना विशेष गुण
मानकर
और गीत गाये
मझुरिम राग में
लिखीं थी समय समय पर
नई इबारतें
किन्तु इसमें लोगो ने
नही माना था
कोई आश्चर्य
न ही तुम्हारी प्रजाति के
प्रति असंतोष पनप
सका था
किन्तु जब तुम्हारी ही
तरह
प्रारम्भ किया मानव ने
चलना उभरना
और दंशन करना
विश्वास मानों तुम्हारे
अस्तित्व को ही
उत्पन्न हो गया खतरा
और बिलबिलाते लोगों ने
बना ली
तुम्हारे नाम की गाली
जिसे वह अब
बड़े रौब
और शान के साथ
जिस किसी को
देता फिर रहा है |
शायद वह अब
स्वीकार कर लिया है
अपने को
साँप मानना
Thursday, 9 March 2017
*****साँप तुम असभ्य थे*****
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