खंड खंड
पाषंड
तोड़ते़ें दिलों के
निश्छल प्रेम
सिसक रहीं
अबलायें बेजुवान हो
जनों पर अत्याचार
बेसुमार
ख्वाबों के कत्ल
हुये बेरहमी से
मंदिर मस्जिद में
खोजते
धर्म धतूरे
हमने देखे जिन्दगी के
रञ्जो अलम बहुतेरे
मानव को मानव से
पहिचान छुपाये
फिरते देखे
समझ न पायें
फिर भी
पत्थरों में भगवान
ढूंढते देखे
लोभ मोह की बिसात पर
शह मात के खेल खेलते देखे
राजनीति में पिलती हैं
अब ओछी बातें
पोशाकों ने ओढी वहशी
चूनर
दर को दीवार बनाते
देखा
अपनों से बेगानों सा
पेश आते देखा
भय विस्मय की
चलती दुकानदारी देखा
जीवन से पहले जीवन की
लाचारी
सेवा की जगह मेवा का
रेला देखा
किस किस को समझाऊँ
इससे अधिक मैं भी
समझ न पाऊँ
अब तुम्ही बताओ
भ्राता
क्या जन क्या सेवक
क्या दाता देखा ?
Monday, 27 March 2017
****खंड खंड पाषंड ****
Tuesday, 21 March 2017
****खत्म होती शामों के साथ****
खत्म होती
शामों के साथ
वे तैयार थे
गहन निद्रा के लिए
खरीदे जा चुके थे
शाही सपने
और दावतों के
शाही पात्र
शफ़ कागज के चन्द
टुकड़े
थामे हाँथ
प्रदर्शित कर रहे थे
अपना पौरुष
जिनसे निचोड़ा जा सके
मजीठिया अंदाज में
धमनियों से रक्त का
एक एक कतरा
और साधे जा सके
बावरे से व्यग्र होते
लालच युक्त स्वार्थ
और साधी जा सकें
अतृप्त लिप्साएं
जो समय की आपाधापी में
पृष्ठ पर पुन:
उभर आई हैं
****संवाद और वाद****
संवाद और वाद
मिलकर
क्यों रचें
एक सफ्फाक सच
जबकि अवसाद
और प्रसन्नता
के मध्य रीत चुका है
बहुत कुछ
बावजूद इसके हमे
रखनी होंगी
फिर से नई
बुनियादें
तय करनी होंगी
सीमायें
संवाद और वाद के
बीच
जिससे समझी जा
सकें उनकी
गहनता
खोजे जा सकें
जिससे भ्रम और उन्माद
के असल मकसद
और रोके जा सके
संवाद और वाद के
मध्य के गहराते विभेद
Thursday, 16 March 2017
****कश्मीर मुद्दा है जिनका****
कश्मीर मुद्दा है
जिनका
क्या वे जानते है
अच्छी तरह से
कश्मीर को
या फिर जानते हैं
कश्मीरियत
या मात्र फनों में
विष भर
घूम रहें हैं
सभी के सभी
जिन्हें न तो केसर से प्रेम है
न तो घाटी की वादी से
और न ही अवाम से
न ही जम्हूरियत से
वे बस देखना चाहते हैं
सिर्फ और सिर्फ
दंगे फसाद
जिनसे साधे जा सके
उनके हित
इसीलिये वे देखना चाहते है
आतंक और धर्म के
लबादे में
सिमटे लोग
बंटे हो जो हिन्दू
और मुसलमान में
और एक के नाम पर
दूसरे को
आसानी किया जा सके
गुमराह
जिससे पूरी हो सके
उनकी सोच
और उनके इरादे
जिससे वे मना सकें जश्न
तुम्हारे लहू के दो रंगों पर
Thursday, 9 March 2017
*****साँप तुम असभ्य थे*****
साँप तुम
असभ्य थे
डसते थे मालूम था
यह सबको
तुम्हारे प्रति
इसीलिये नजरिया भी
वैसा ही बना था
तुम्हारे वंशजों ने
मनाये थे उत्सव
अपना विशेष गुण
मानकर
और गीत गाये
मझुरिम राग में
लिखीं थी समय समय पर
नई इबारतें
किन्तु इसमें लोगो ने
नही माना था
कोई आश्चर्य
न ही तुम्हारी प्रजाति के
प्रति असंतोष पनप
सका था
किन्तु जब तुम्हारी ही
तरह
प्रारम्भ किया मानव ने
चलना उभरना
और दंशन करना
विश्वास मानों तुम्हारे
अस्तित्व को ही
उत्पन्न हो गया खतरा
और बिलबिलाते लोगों ने
बना ली
तुम्हारे नाम की गाली
जिसे वह अब
बड़े रौब
और शान के साथ
जिस किसी को
देता फिर रहा है |
शायद वह अब
स्वीकार कर लिया है
अपने को
साँप मानना
Tuesday, 7 March 2017
****अनायास ही नहीं*****
अनायास ही नहीं पहुँच जाते
ध्वनियों के संदेश
दिल की गहराई तक
वरन् वे प्रेषित किये
जाते हैं
भावनाओं में गहरे
सहेजकर
जिससे आसानी के साथ
वे पहुँचाये जा सकें
हृदय की
अनुनादी सतह तक
और की जा सके
उनमें गुणात्मक वृद्धि
जिससे उनको बनाया जा सके
और अधिक प्रभावी
और करवाई जा सके
सहज ही हुक्म की
तामील
पीड़ादायी आवाजों के
बीच सुरक्षित रखा जा सके
उनका सिंहासन और
रुतबा
*****तुम्हारी पूजा में मानव नहीं है****
तुम्हारी पूजा में
मानव नहीं है
पत्थर है
देवता
पत्थर है
अल्लाह
और पत्थर है
ईसा
इसके बावजूद भी
तुम
बात बात पर
लड़ते हो
कभी धर्म की
ताकीद देकर
कभी देश की
दुहाई देकर
और कभी क्षेत्रवाद का
ज़हर घोलकर
कभी जातिवाद का
घिनौना खेल
खेलकर
क्या तुमने कभी
सोचा है
क्या तुमने कभी
खुद को पहिचाना
या फिर तुम मिटा देना
चाहते हो
खुद ही अपनी
पहिचान
या फिर तुम भी बन जाना
चाहते हो
जीता जागता पत्थर
शायद पत्थरों के साये में
रहते रहते तुम भी
तब्दील हो ग़ये
पत्थर में
और तुम समझ ही
नहीं पाये
यह कब और कैसे हुआ ?
Wednesday, 1 March 2017
*****अदृश्य रिश्ते****
खरगोश देख
याद आ जाती है
हरी घास
चकोर देख
याद आ जाता है
चांद
चातक देख
याद आ जाता है
बादलों से घिरता
रूमानी आकाश
चीथड़े में लिपटे मासूम
देखकर
याद आ जाता बचपन
यह सहज सी
दिखने वाली वस्तुएं
इतनी सहज नहीं होती
जितनी सोची और
समझी जाती हैं
इनको समझने के लिए
समझना होता है
दोनो के जमीनी
ताल्लुकात
और परिभाषित करने होगे
उनके और उनके के बीच
अदृश्य रिश्ते