Monday, 20 February 2017

*****सपनों की जंग****

टूट पड़ते हैं
तुम्हारे शब्दों के
झुण्ड पर झुण्ड
जब भी मैं चाहता हूँ
कुछ कहना
करते हैं घात प्रतिघात के
सारे प्रयास
जिससे दबाई जा सके
आवाज गहरे तक
और बढाई जा सकें
मुश्किलें
भींच लेता हूं
मैं अपने होंठ
और तनी हुई मुट्ठियां
फिर रह जाता हूं
खामोश
किन्तु जब आती है बात
कुछ सोचने और विचारने की
त्यागकर सभी भय
फूँकता हूँ
विद्रोह का बिगुल
जिससे रोकी जा सके
शब्दों के झुण्डों की
मनमानी
और जीती जा सके
सपनों की जंग

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