Wednesday, 28 September 2022

पान की बेगम

पान की बेगम का रंग
लाल तो बिल्कुल नहीं
फिर कौन सा रंग होगा ?
सोचने लायक है यह बात
लालायित रहते हैं
जिसके लिए बहुत से लोग
मिल जायेंगे खोजते हुए 
सीधी सपाट जगहों से लेकर 
गली मुहल्लों के नुक्कड़ों तक
बेपरवाह आवारा से
खोज लेने का 
मन ही मन लगाते हुए कयास
इसलिए नहीं कि वह 
बहुत अधिक प्रिय है उनको
बल्कि इसलिए कि 
उसके रंग में ही छिपा है
उसकी सुर्खी का राज
जो आज भी बना हुआ 
लोगों के लिए अचरज़ का विषय
जिसे खोजने के 
अभी तक के सभी प्रयास
हो चुके हैं असफल
बावजूद इसके कुछ उत्साही लोग
अब भी जारी रखे हुए हैं 
अपने खोजी अभियान
जिससे बना रहे
खोजों के प्रति लोगों का 
दृढ विश्वास
और खोजे जा सकें 
पान की बेगम जैसे 
बहुत से अनखोजे रंग 
फिर भी रह रह उठता है 
मन में एक प्रश्न
आखिर क्या होगा ?
पान की बेगम का रंग

Monday, 26 September 2022

काऊ बेल्ट


प्रत्येक देश का साहित्य वहाँ की जनता की चित्तवृत्तियो का संचित प्रतिबिम्ब होता है | यह कथन महान आलोचक रामचंद्र शुक्ल जी ने यूँ ही नहीं कहा था बल्कि इसकी प्रमाणिकता को परखकर कहा था |कुछ समय से हमें सभी संचार माध्यमो के द्वारा पता चल रहा है की सभी ऊँचे ऊँचे ओहदों पर आसीन हस्तिओं द्वारा एक बात को लेकर बड़ी व्यग्रता दिखाई जा रही है वह यह की सभी कार्यालयों एवं एनी जगहों में आधिकारिक रूप से हिंदी के प्रायोगिक तौर पर प्रयोग की |ऐसे माननियों के द्वारा उठाई जा रही बात से एक मजेदार बात उभरकर सामने आ रही है वह है  कि वेचारे हिंदी पढने लिखने वालो या उन गिने चुने पञ्च सात राज्यों की जहाँ की भाषा हिंदी है जिसको अंग्रेजी के पिछलग्गुओ के द्वारा काउ जोन घोषित कर दिया गया है |
                             इन सभी बहसों को जब मैंने बारीकी से परख रहा था तब एक प्रश्न मेरे सामने यक्ष के रूप में बार बार आ रहा था लेकिन मैं उस यक्ष को बार बार शांत होने का संकेत देकर शांत कर रहा था | लेकिन किसी भी बात को आखिर कब तक रोका जा सकता था |आखिरकार उसे मुझे आदेश देना ही पड़ा वह प्रकट हो कहा क्या किसी भाषा को आदेशित करके मनवाया जा सकता है ?क्या कोई भाषा चाँद पढ़े लिखों की बपौती है की उसे जब चाहे अपनी सम्पति घोषित कर दें |भाषा का तो सम्बन्ध हमारी संस्कृति एवं संस्कारो से जुडा हुआ है | भाषा तो नदी के बहते हुए निर्मल जल के सदृश है |जिस प्रकार किसी प्राणी के जीवन के लिए जल की आवश्यकता होती है 
उसी प्रकार किसी व्यक्ति को समाज में अपना अस्तित्व बरकरार रखने के लिए एक भाषा की आवश्यकता होती है |यदि किशी भाषा को मानाने के लिए कोई फरमान जरी किया जाय तो मेरी समझ में मनो उस भाषा की भरी सभा में आबरू उतारी जा रही हो |कारण जबी तक मन किसी कार्य को करने के लिए तैयार न हो तब तक हम उसे अपना नहीं कह सकते हैं  |
                      किसी भाषा को जानने के प्रति लोगो को प्रेरित करना चाहिए न कि खोखली बयानबाजी | किसी ने सच कहा है कि जिसने अपनी माता की इज्जत  करना नहीं सीखा वह चाहे जितना भी पुरषार्थ कर ले उसका पुरषार्थ बेकार हो जाता है | उसी प्रकार जो अपनी राष्ट्र भाषा का सम्मान नहीं करता उस देश का भला नहीं हो सकता है | हमें महावीर प्रसाद द्विवेदी जैसे पुरोध की आवश्यकता है जो देवकीनंदन खत्री पैदा कर सकें जिनके द्वारा लिखे गए तिलस्म से परिपूर्ण उपन्यास चंद्रकांता संतति को पढने के लिए लोगो की हिंदी के प्रति हसरते जगी | साल भर में मात्र हिंदी दिवस या हिंदी पखवारा भर मन लेने से कम चलने वाला नहीं है और न ही दफ्तरों में तख्तियां में बड़े बड़े अक्षरों में हिंदी में तंग देने मात्र से ही कम चलने वाला है |यह तो वही कहावत हो गयी की जिन्दा में अपने पुरखो को पानी नहीं डे सके मरने पर जग्ग रचाने चले |
 जिन्दा पानी दिया नहीं, मुए दिए बड भोज |
देख दस संसार की , दिया पी० के ० रोय |
राजनेताओ के भाषण एवं कार्यालयों के दफ्ती में लिखकर टांगने वाले कर्यलायाध्य्क्षो से अच्छे तो वे हैं जो फक्र से अपनी टूटी फूटी ही सही मगर प्रचारो में और मनोरंजन के दौरान खुले दिल से इसको बोलने की कोशिश करते है |आज प्रचार के माध्यमो ने एक नया शब्द गधा है वह है हिंगलिश जो इन हंश का चोला धारण करने वाले बगुलों से तो ठीक ही है क्योकि भले ही वह हिंदी के शुद्ध शब्दों की जगह मिश्रित शब्दों का प्रयोग कर रहे हो मगर उन्हें उसे व्यक्त करने में तनिक संकोच तो नहीं होता |
हमारा देश सदियों से पराधीनता की बेडियो में जकड़ा रहा है और हिंदी को अपना स्वरूप प्राप्त करने के लिए जबरदस्त प्रतिस्पर्धा करनी पडी है तब जाकर उसे यह मुकाम हाशिल हुआ है |इस प्रतिस्पर्धा के दौरान उसने अपने अन्दर प्रत्येक भाषा से अधिकाधिक शब्दों को ग्रहण किया इसके बावजूद वह एक स्वंतंत्र भाषा है तथा उसकी लिपि वैज्ञानिक है |तथा यह प्रत्येक शब्द को व्यक्त करने की अद्भुत क्षमता अपने अन्दर संजोये हुए है | जरूरत है तो तोबस दृढ संकल्प और सच्चे मन से इसे और अधिक प्रभावी ढंग से व्याख्यायित करने की यदि हम अपने उद्देश्य की पूर्ति में कामयाब हो गए तो तो निश्चित हम अपना लक्ष्य भी प्राप्त कर पायेगें अन्यथ हिन्दिदिवास या पखवारा मानना मनाकर ही संतोष करके बैठ जाय |
             पिछले कुछ समय की कहानियो ,कविताओ और सामाजिक पत्रकारिता से जुड़े लेखो के तुलनात्मक अध्ययन करने पर पाया गया इसने लोगो के मध्य अपना स्थान बनाने में कुछ हद तक सफलता प्राप्त की है |इस प्रकार इस तथ्य को झुठलाया नहीं जा सकता कि जैसा कि कुछ तथा कथित भाषाई द्वेष रखने वाले अंग्रेजी के पिछलग्गू चमचो के द्वारा इतने बड़े जनसमुदाय के द्वारा बोली जाने वाली भाषा को काउ बेल्ट के रूप में संबोधित किया जाता है |आज बाजार की ताकत ने इसको वह स्वरुप प्रदान किया है जिसको हमारे कवी लेखको के समन्वित प्रयास के द्वारा भी हिंदी को उसका वाजिब हक दिलाने में सफल नहीं हो सके | मुझे यह स्वीकार करने में तनिक संकोच नहीं होता की हिंदी जानो बाजारवाद जो कभी भी अपने हित के अतिरिक्त कोई कार्य नहीं करता का आभार व्यक्त करना चाहिए भले ही उसने यह कार्य अपने उत्पदो के लिए ही सही हिंदी को बढ़ावा दिया |जबकि हमारे तथाकथित हिंदी के पैरोकार पैरवी कम मक्खन मलाई ज्यादा हजम किये |-----

Monday, 19 September 2022

दूर क्षितिज

दूर क्षितिज से 
आ रही देखो छन छनकर
प्यारी प्यारी न्यारी न्यारी
धूप सुनहरी 
विहँस रहे हैं पातों संग 
हिलते डुलते फूलों के डण्ठल
गा रही है फुदक फुदक 
फुलसुंघनी देखो
मधुरिम मधुरिम गीत
गुनगुन करते
झुण्डों संग भौरे आते
जैसे प्रात समय बच्चे
उठ खेलने को जाते
इतराते इठलाते 
स्वयं रूठते,स्वयं ही मनते
करते नित अपने काम
सुबह सबेरे जब
स्वर्णिम पगड़ी बाँधे
सूरज आता
खिल उठते मानवों के चेहरे
लहरों से लहराते
पातों के संग
खुशियों से अतिशय भर
सरसिज मुस्काते
जैसे जैसे दिन चढ़ता जाता
सूरज नित नूतन 
करतब दिखलाता
उत्साहों से पूरित
धरती,अम्बर के 
अन्तरतम हो जाते
उनके गीतों के स्वर अनोखे
फैल जगत में जाते

Monday, 14 March 2022

रिटायरमेन्ट

*रिटायरमेन्ट*
रिटायरमेन्ट होने की कगार पर पहुँचा आदमी सेवानिवृत्त होने के पूर्व ही अपने आप को रिटायर्ड मानने लगता है। ऐसा नहीं कि वह अक्षम हो जाता है बल्कि वह कोई रिस्क मोल नहीं लेना चाहता है। उसे लगता है कि वह अपने शेष बचे हुए दिनों को सुरक्षित काट ले और वहाँ से बेदाग निकल जाये शायद उसका यह सोचना काफी हद तक सही भी हो सकता है । लेकिन इससे कई समस्याएं स्वतः ही उठ खड़ी होती है। जिनका निदान बड़ी ही मुश्किल से हो पाता है। क्योंकि उसके इस प्रकार से निष्क्रिय होते ही चारों तरफ निराशाओं का माहौल बन जाता है। जबकि रिटायर्ड होने वाला व्यक्ति सोचता है गाड़ी किसी तरह उसे उसके मुकाम तक पहुँचा दे। वह चाहता आने वाले दिनों में जब वह आये तो लोग उसे भूल न जायें । इसके लिए वह भला बुरा भी सुनता रहता है। वह पूर्व के सभी आदर्शो को छोड़ निस्पृह बने रहने की पूरी कोशिश भी करता हुआ नज़र आता है। उसका यह रवैया यद्यपि उसके द्वारा मेहनत से गढ़े गये व्यक्तित्व को क्षति पहुँचाता है। बावजूद इसके वह प्रत्येक दिन अपने बचे हुए दिनों से एक दिन हटाता जाता है।
                 बहुत पहले की बात है कि मखऊवा कस्बे के चन्दू सिंह पर्वत सिंह इण्टर कालेज में बतौर प्रधानाचार्य के कार्यरत था। जब कभी कोई उसके पास बैठता वह अपने कर्तव्य परायण होने की खूब डींगें हांकता। मसलन मैने अपने सार्वजनिक जीवन में पूरी निष्ठा व ईमानदारी से कार्य किया कभी छुट्टियाँ नहीं ली। लोग भी चुप रहते थे। क्योंकि वह कहते हैं न कि सामर्थ्यवान व्यक्ति का कहा सब कुछ सही ही होता है भले ही वह सरासर गलत ही हो। बेवजह लोग कोई जहमत मोल नहीं लेना चाहते थे तो शान्त रहते थे तो कुछ चापलूस टाइप के लोग तो उससे भी दो कदम आगे बढ़कर उसकी प्रशंसा किया करते थे। इन प्रशंसाओं को सुनकर वह फूला नहीं समाता था। बच्चों/ बच्चियों के प्रति बेवजह अपशब्दों का प्रयोग भी किया करता था। उसे लगता था बच्चों में अनुशासन बनाये रखने के लिए अपशब्दों का प्रयोग एक आवश्यक पहल होती है। जितना वह बाहर से सख्त दिखता था उतना ही भीतर से लिबलिबा था। जातिवादिता उसकी रग रग में व्याप्त थी। यद्यपि वह सामाजिक तौर पर इसका प्रदर्शन तो नहीं करता था लेकिन वह कहते हैं न पानी में की गई टट्टी उतराने से नहीं रहती। अतः कहीं न कहीं उसके व्यवहार की पोल खुल ही जाया करती थी पर उससे कोई कुछ नहीं कहता था।
                  समाज में उपस्थित लगभग सभी सजातीय कमेटियों का वह सदस्य था। और उन पर बढ़ चढ़कर भाग भी लेता था होली मिलन हो या दशहरा वह पूरे उत्साह के साथ उनमे प्रतिभाग करता था। इसी कारण उसके सम्बन्ध लगभग सभी पार्टियों से थे । और वह सभी का विश्वास पात्र भी था उसका कारण यह नहीं था कि उसकी धौंस थी बल्कि उसका कारण उसकी सम्मानित सीट थी । दूसरा कारण यह भी था कि लगभग सभी पार्टियों को ऐसे लोगों की जरूरत हुआ करती है। यद्यपि वह समझता था यह उसका सयाना पन है और इसका श्रेय वह अपनी विश्वविद्यालयी पढ़ाई को दिया करता था। और बात बात पर अपने गाँव की दुहाई दिया करता था । ऐसा कोई भी कार्य नहीं था जिससे वह अपने को जोड़ने का प्रयास न करता रहा हो । इस तरह पूरे सर्विसकाल में उसने काफी मान सम्मान तो अर्जित किया ही था साथ ही अपना घर खर्च भी अपने विद्यालय से ही निकालने का भरसक प्रयास किया करता था। और कफी हद तक निकालता भी था। विद्यालय का कोई समान आना हो या फिर कोई पुस्तक लगनी हो तो सभी पर उसका पूर्ण अधिकार होता था । एक बार उसी के विद्यालय का शिक्षक शंकर लाल अपने किसी कार्यवस अपने शहर जैतनपुर गया हुआ था वहीं उसकी मुलाकात उसके बचपन के दोस्त मुखराम से हो गईI दोनो मित्रों ने एक दूसरे का हाल चाल पूँछा और मक्खन चाय वाले के यहाँ चाय नाश्ते के लिए बैठ गये। मक्खन ने भी वर्षों बाद मिले इन दोनो दोस्तों के लिए गरमा गरम भजिया तली और एक प्लेट में डालकर उनके सामने मेज पर रख दिया। साथ ही गरम चाय के दो कुल्हड़ रख दिये। बातों का सिलसिला चला तो चलता ही चला गया। चाय कब खतम हुई इसका पता ही नहीं चल सका जब दोनो थोड़ा बातचीत से खाली हुए मक्खन ने कहा सर एक एक चाय मेरी तरफ से दोनो ने मना किया लेकिन तब तक मक्खन ने चाय के दो कुल्हड़ लाकर मेज पर रख दिये। चाय की चुस्कियों के साथ पुनः दोनो बातों में मसगूल हो गये। लेकिन अब बात घर परिवार की न होकर उनके कामकाज पर केन्द्रित थीं। शंकर लाल ने मुखराम से पूँछा भाई आजकल क्या हो रहा है? तो मुखराम ने कहा भाई कुछ नहीं मैंने स्पोर्टस के समानों की छोटी सी दूकान घर पर खोल रखी है और तुम्हारी भाभी प्राथमिक विद्यालय कर्मापुर में शिक्षिका है बस यही हो रहा है और तुम बताओ तुम क्या कर रहे हो इस समय?तो शंकर लाल ने कहा पड़ोस के जिले में कंठापुर नाम के कस्बे में चन्दूसिंह पर्वत सिंह इन्टर कालेज में बतौर शिक्षक की नौकरी हूँ। तभी मुखराम ने बीच में ही उसकी बात काटते हुए बोला यह वही स्कूल है न जिसमें मरखन सिंह उर्फ मखउवा प्रधानाचार्य हैं। शंकर लाल ने कहा हाँ लेकिन मित्र तुम कैसे जानते हो उन्हे? पहले तो मुखराम ने मना किया लेकिन दोस्त ने जब जोर दिया तो उसने बताया कि उसके विद्यालय में ज्यादातर खेल की सामग्री उसकी ही दूकान से जाती है। शंकर लाल ने कहा तो ! तब मुखराम ने बताया कि जो बिल जाता है न ....................... ।
शंकर लाल ने कहा हाँ तो यदि सामान जायेगा तो बिल तो देना ही पड़ेगा न। मुखराम ने कहा खैर छोड़ इन बातों को और बताओं लेकिन शंकर लाल को लगा कि उसका मित्र उससे कुछ छुपा रहा है । अतः उसने मुखराम को फिर से कुरेदा तब मुखराम ने बताया कि मित्र यदि यह बात अपने तक ही सीमित रखो तभी बताऊँगा अन्यथा नहीं क्योंकि यह दुकानदारी का मामला है। शंकर लाल ने उसे आश्वत किया कि वह उसकी बात अपने तक ही सीमित रखेगा तब उसने बताया कि तुम्हारा प्रधानाचार्य किसी भी समान की खरीद जितने में करता है उससे दुगुना का बिल बनवाता है। हम व्यापारी हैं यदि मैं नहीं बनाऊँगा तो कोई दूसरा बना देगा । इसीलिए ..................... ।
             शंकर लाल को मानों चार सौ चालीस बोल्ट का करंट लग गया हो । वह कुछ देर के लिए तो जड़ हो गया कुछ देर बाद जब उसके मित्र मुखराम ने उसे हिलाया तो वह एकबयक जड़ता से बाहर आया। मुखराम मुस्कुराते हुए बोला मित्र कहाँ खो गये थे। शंकर लाल ने कहा कही तो नहीं। पर उसका मन अशान्त था वह सोंच नहीं पा रहा था कि जिसे वह आदर्श मानता था या जो इतनी बड़ी बड़ी डींगे हांका करता था आखिर वह इतना बड़ा बेईमान कैसे हो सकता है? जो संस्था को इतना अधिक चूना लगा रहा है। पहले तो उसका मन हुआ वह स्कूल जाकर अपने प्रधानाचार्य को तीन तमाचे बिना पूंछे पछोरे ही जड़ दे। फिर पूँछे की आखिर भगवान ने क्या कमी कर रखी है जो वह इस तरह के तुच्छता भरे कार्य कर रहा है ? एक बार तो उसका मन यह भी हुआ कि वह जाकर प्रबन्धक से शिकायत कर दे। लेकिन प्रबन्धक भी कहाँ छोटा वाला था उसके गुर्गो के कारनामों की ओर जब उसका ध्यान गया तो उसे प्रधानाचार्य का यह अपराध बहुत छोटा लगा अतः वह शान्त रहना ही बेहतर समझा । क्योंकि अब वह समझ चुका था कि दोनों की आपसी रजामंदी है कि तुम स्कूल के फण्डों से जो चाहे करो और मैं प्रबन्धतंत्र की दूकानों की अदला बदली में या फिर किसी की बेदखली से होने वाली आमदनी में किसी भी प्रकार का हस्तक्षेप वह न कर। यानि न तू मेरी कह न मै तेरी।
             इस तरह से सभी कुछ योजना के मुताबिक ही चल रहा था । यद्यपि वाह्य तौर पर कई शिक्षकों को लगता था कि उनका प्रबन्धक दूध का धुला हुआ है। इसलिए यदा कदा प्रधानाचार्य की शिकायत उससे कर दिया करते थे। किन्तु वह कहते हैं न कि जब अपना गिरेबान भी दागदार हो तो कार्यवाही कैसे की जा सकती है? अतः आश्वासनों के बीच सारा मामला टांय टांय फिस्स हो जाता था। अब तो खुल्लम खुल्ला नियमों की धज्जियां उड़ती रहती और हर बार वही कोरा आश्वासन मिल जाता। शंकर लाल को भी अब यह बात समझ में आने लगी थी। लेकिन वह चुप बैठने वालों में से नहीं था। उसे तलाश थी तो एक अदद मौके की। वह दोनों की गतिविधियों के साथ-साथ लगुवा भगुवों की गतिविधियों पर निगाह बनाये हुए था। एक दिन उसे यह सुअवसर प्राप्त भी हो गया जब उसकी मुलाकात रेजीडेन्सी कालेज मार्फतपुर के एक सेमीनार के दौरान उसके विश्वविद्यालयी जीवन के पुराने मित्र शोभितराम से हुई जो इस समय राज्य एण्टी करप्सन विभाग में विजिलेन्स सचिव के पद तैनात था ।दोनो मित्रों ने एक दूसरे का अभिवादन स्वीकार किया। तथा एक दूसरे की कुशलक्षेम पूंछी। बातचीत के दौरान ही शंकर लाल ने अपनी पीड़ा से अपने मित्र शोभितराम को अवगत कराया। पहले तो मित्र मुस्कुराया और शंकर लाल से बोला मित्र तुम्हारे साथी और समाज के लोग कुछ भी नहीं कहते हैं तो शंकर लाल ने कहा कि वह समाज में अपनी इतनी अच्छी शाख बनाये हुए है कि लोगों का ध्यान इस ओर जाता ही नहीं। शोभितराम ने कहा मित्र चिन्ता न करो मैं देखता हूँ। जो करने लायक होगा जरूर करूंगा ।
             सेमिनार के पश्चात दोनो मित्रों ने एक दूसरे से विदा ली और अपने अपने कर्मक्षेत्र को लौट गये। परन्तु शंकर लाल का मन अब भी अशान्त था एक बार तो उसे लगा उसका मित्र भी उसे मात्र दिलाशा ही देकर चला गया । वह गुमसुम रहने लगा था। पूंछने पर भी किसी को कुछ नहीं बताता। जब कई दिन इस तरह से पति को गुमसुम देखा तो पत्नी कुसुम ने उससे पूंछा आखिर बात क्या है? शंकर लाल ने कुछ नहीं कहकर बात टाल दी। पर कुसुम जो उसके साथ अपने जीवन का लगभग आधा भाग बिता चुकी थी उसकी रग रग से वाकिफ थी । उसने कहा ठीक है मत बताओ लेकिन इस तरह ............................... ।
             करीब पन्द्रह दिन ही बीते थे कि एक दिन अचानक से प्रबंधक सुग्गाराम के यहाँ प्रवर्तन दल ने छापा मार दिया । पूरे कस्बे में शोर मच गया कि प्रवर्तन दल ने कालेज के मैनेजर के घर छापा मार दिया । प्रधानाचार्य जो अपने को पहुँच वाला मानता था। उसने अपने आई जी मित्र रामकिशुन को फोन कर प्रबन्धक के पक्ष में कार्यवाही रोकने की गुहार लगाई तो रामकिशुन ने उसे डॉटने के अंदाज में बोला क्यों रे मखऊवा तू तो कहता था कि प्रबन्धक बिल्कुल राजा हरिश्चन्द्र है। उसके पास तो आय से अधिक सम्पत्ति मिली है। विद्यालय की सम्पत्ति बेचने के उस पर संगीन आरोप लगे हैं। तू तो चुप ही रह क्योंकि तूने भी फण्डों में गड़बडी की है। अब मखऊवा को काटो तो खून नही। अनमने मन से उसने फोन रख दिया। उधर प्रवर्तन दल ने खाद्य पदार्थों में मिलावट तथा उपभोगताओं के साथ धोखाधड़ी के साथ साथ आय से अधिक सम्पत्ति तथा सरकारी सम्पत्ति के गवन जैसे संगीन आरोप लगाकर प्रबन्धक को जेल भेज दिया। अब बारी थी मखउवा की एक विजिलेंस टीम अगले ही दिन स्कूल आकर रजिस्टरों खास तौर पर क्रीडा विज्ञान वाचनालय व पीटीए के भुगतान सम्बन्धी विवरणों को खंगाला तो उसे मिला कि कोई भी भुगतान नियम संगत नहीं था। अतः प्रधानाचार्य को फण्डों से अवैध तरीके से निकाले गये धन को दो दिन के भीतर जमा करने के निर्देश देते हुए जमा के पत्रजात सचिव कार्यालय भेजने को कहा।
             मखउवा ने अपना सर पीट लिया क्योंकि उसे उम्मीद नहीं थी उसके काले कारनामों के चिट्ठो की कभी कोई शिकायत करेगा या फिर जाँच ही होगी। वह भूल गया था कि भगवान के घर में देर है अंधेर नहीं वह एक एक कार्य का हिसाब रखता है। और समय आने पर वह उसका हिसाब भी लेता है। आज मखउवा के साथ जो हो रहा था वह अनायास नहीं हो रहा था बल्कि उसके ही पूर्व के किये कर्मो का परिणाम था जो उसे इस रूप में मिला था। बहरहाल किसी तरह जुगाड़ पानी करके वह अवैध निकाले गये दो लाख रुपयों को खाते में जमा कर रसीद सचिव कार्यालय भिजवा दी। किन्तु यह दो लाख रुपये भरना उसको उसके रिटायर्ड होने तक कचोटता रहा। रिटायर्ड होने के कुछ समय पूर्व उसने सोचा क्यों न जमा किया हुआ रुपया किसी तरह से निकाल लिया जाय? रिटायर्ड होने के बाद कौन वसूली करता है। वह ऐसा करने ही वाला था कि उसकी उम्मीदों पर तब पानी फिर गया जब प्रबन्धक की सीट पर बैठे राममनोहर ने उसके फण्डों से निकासी पर बिना अनुमति के रोक लगा दी। मखउवा ने काफी हो हल्ला मचाया कुछ स्वजातीय लोगों का दबाव भी बनाया लेकिन सब बेकार रहा। क्योंकि प्रबन्ध कार्य कार्यकारिणी के लोग नहीं चाहते थे कि कोई अवैध निकासी हो। उन्होंने एक पत्र जिला विद्यालय निरीक्षक तुलाराम जी को भी दे दिया। जिला विद्यालय निरीक्षक महोदय ने भी रोक को सही करार दिया। इस तरह से मखउवा मन मारकर अपने रिटायर्ड मेन्ट के दिन सेवानिवृत्त हो गया। जैसा कि उसने पूर्व में अपने सहयोगियों के साथ किया था वैसा ही उसके सहयोगियों ने भी किया। बिना की फेयरबेल पार्टी के ही आखिरकार उसे भी अपने रिटायरमेन्ट में जाना ही पड़ा ।
             प्रद्युम्न कुमार सिंह
                (प्रवक्ता )
              श्री जे0पी0शर्मा इण्टर कालेज
              बबेरु - बाँदा ( उ0प्र0 )
              पिन कोड -210121
              मोबाइल-08858172741
              ईमेल -pksingh1895@gmail.com

Saturday, 12 March 2022

धुंध के पार

धुंध से पार देखना
और धुंध के पार देखना
अलग अलग होती हैं
दोनों बातें 
कुछ लोग देखतें हैं
धुंध से पार
और नहीं देख पाते
हकीकत को
और साधते रहते हैं
अपने तीर और कमान
एक असली योद्धा की भाँति
क्योंकि उन्हे पसन्द होती है
मौका परस्ती, एवं
स्वार्थ पोषित सत्ताएं
वे अकारण ही दे देते हैं
असहमतियों को वैमनस्यता का नाम
जिसके स्यापे को ढोने को
विवश होते हैं
बहुत से धरती के लाल
कुछ तुले हुए होते हैं
लोगों को झुकाने में
परन्तु नहीं टेकते कभी भी घुटने 
जलज जैसे लोग
चलते रहते हैं
केन की धार सरीखी
चट्टानी परिस्थितियों से 
टकराते हुए
क्योंकि न तो उन्हे पसन्द होता है
सिर झुकाकर मूक रहना
न ही असहमतियों से मुख मोड़ना
और न ही मरी हुई 
इच्छाओं के साथ जिन्दगी जीना

Friday, 11 March 2022

किसी राम के लंका आने का

अक्सर !
अट्टहास की
गूंजती आवाजों के बीच
दब कर रह जाती हैं
मानवीय संवेदनाएं
तार तार होती
मान्यताएं
और चींखती हुई वेदनाएं
हाफते हुए
बेजान हो जाते हैं
खूबसूरत चेहरे
प्रभावी होने लगती 
भयावह अनगूंज
और फैल जाता है
एक अनाम डर
जिससे डरा हुआ आदमी
छुपा लेता है 
अपने भीतर 
हमेशा हमेशा के लिए
भय, आक्रोश, 
और घृणा से तिरहित 
अपने आप को
उसके सीने में दफ़न रहती है
मुक्ति की चाहत
वह इंतजार करता है
विभीषण की तरह
किसी राम के लंका में आने का

तवायफ

शरीफों के किस्से
तवायफों से पूँछो
क्योंकि
शरीफों की शराफत
अक्सर तवायफों की चौखट
लांघती है
क्योंकि टूटे दिलों का हाल
दुनिया से बेहतर
तवायफें नी समझती हैं
पर क्या कभी गौर किया है तुमने
तवायफों के किस्सों के
बारे में
जिसे अक्सर मान 
लिया जाता है
पूरे समाज के लिए गाली
आखिर तवायफों का 
अतीत क्या रहा है
क्या कोई स्त्री खुद ही 
बनना चाहता है
तवायफ
या फिर उसे मजबूर करता है
यह ही सभ्य समाज
तवायफ बनने के लिए
यही कड़वी सच्चाई है
जिसे शायद ही कभी 
स्वीकार करे 
कोई भी सभ्य समाज I


Monday, 17 January 2022

शोषक

शोषक शोषित 
जग के भाग दो 
नींव खड़ी अस्थि-पंजर के सिर
कांकर पाथर सा 
उसको खरीदता मनुष्य
सहज मूल्य             
मन में उठती बार बार  
कहानी उसकी एक
सुख दु:ख सहता
निज फौलाद से वक्ष                
अस्थि चूर्णों से निर्मित 
विश्व सदन,                             
उद्यत रहती जिस पर 
प्रतिक्षण पूँजी की तीक्ष्ण धार
धूल धूसरित 
कंटकों से शोभित 
उसका जीवन पथ,                          
निरन्तरता के ले स्वप्न अखण्ड ,               
घायल पगों की 
रक्त से रंजित रज 
धोती सदा वह अश्रुधार                    
मायूसी का कोई 
कारण अन्य नही तू समझ         
मेरे भी दिल में 
उठती है लहू की 
लहरें उन्मादी                   
मन मे भरी टीस भारी                    
तन में चुभता है
कंटक सा कोई भयंकर
सिहर उठती पीड़ा 
चुभन बन
उफ यह भयंकर दर्द!        
उमड़ पड़ता स्मृति के द्वार        
कह जाता एकबयक
स्वार्थ की बातें अनेक
चूस लेता नादान शिशु सा 
माँ का रक्त दूध मान      
और भुला देता 
उसको भी बड़ा होने पर
पाला था जिसने 
लाड़ प्यार से उसको     
हर क्षण धन संचय में
कोल्हू में तेली के बैल सा   
वह लगा रहता 
घोलते हुए जीवन में
विशाक्त कर्मों को सत्व
उच्छवास भरती 
उसकी सूनी सांसें                  
छीनने को भूख प्यास उसकी                     
कल उमड़ी थी वह 
अश्कों की नदी बनकर                    
पेड़ पर देखा जब
लटकी हुई मानव की 
मृत लाश            
उतारा था उसको सदुःख 
अभी भी नम थी 
जिसकी आँखे 
बह रही थी जिनसे 
अश्रुधार निरन्तर 
नज़रें गड़ा दी थी  
अमीरों की बेशर्मी ने 
उसकी जमीं पर 
उतावली हो                   
लूट लिया जिसने 
उसका स्वत्व 
एहसानो की लम्बी फेहरिस्त
लटक रही थी
उसकी रूह के द्वार
तनिक भी न
उस पर उसने 
रहम खाया
देखकर बच्चों की भी चीख                         
खाली करवा लिया 
एक झटके में माकान सारा
लगी न तनिक भी 
उसको देर
दरवानों के बल पर  
दाँत निपोरे हँस रहा था वह  
ज़हर बुझे वचनो में
कह रहा था
ठेका ले रखा हूँ 
क्या मैने सारे जग का?          
धिक्कार है !
ऐसे नर जीवन को
महास्वार्थ मे ही 
जो लिपटा हो            
मिथ्या को जो न 
त्याग सका
ऐसा मानव दुनिया में
क्या कर सकता
बुद्धिजीवी होने के नाते
उसे मानव मैं 
कैसे कह सकता
शोषण ही जिसके हथियार
उसे भला किसकी फिक्र
देखे मैने दुनिया में
एक से बढ़कर एक
ऐसे लम्पट धूर्त अनेक ।

Sunday, 9 January 2022

मुझे फख्र है

मुझे फ़ख्र है
मैं कभी नही बन सका 
महानायक 
भव्यता और भ्रम के
शानदार उपमानों से 
घिरा हुआ
कथनी तथा करनी में 
अन्तर के पैमाने तय 
करता हुआ
रौब और दौव के साथ
चमचमाती कारों मे सवार
कैमरों के सामने 
झूठी मुस्कान सहेजता हुआ
बल्कि मै लड़ता रहा 
लगातार 
संघर्षशील मनुष्य की 
आवाज बनकर
अन्याय व अत्याचार के 
विरुद्ध उद्घोष बन
यद्यपि नहीं दिला सका मैं
उत्पादकों को
उनकी लागत से 
अधिक कीमत
और विफल रहा
आधी आबादी के संघर्ष को
सरोकारों तक पहुँचाने मे 
फिर भी मुझे फ़ख्र है
मैं कभी नही बन सका 
महानायक 
जो आदमी होते हुए भी
हमेशा रहता हो
आदमियत की जद से 
बाहर
बल्कि इसके विपरीत
मै लगा रहा हमेशा
जन भावनाओं के साथ
मन क्रम वचन से
प्रतिबद्ध योद्धा सरीखा
यद्यपि मुझे भुगतने पड़े 
इसके गम्भीर परिणाम भी
परन्तु मैं खुश था
प्रकृति व परिस्थितियों के साथ 
तदात्म स्थापित करते हुए
क्योंकि मेरे लिए 
महानायकत्व से भी 
महत्वपूर्ण थी
मनुष्यों की संवेदना
जो पहुँचती जा रही है
लगातार खात्मे की ओर