Monday, 26 September 2022

काऊ बेल्ट


प्रत्येक देश का साहित्य वहाँ की जनता की चित्तवृत्तियो का संचित प्रतिबिम्ब होता है | यह कथन महान आलोचक रामचंद्र शुक्ल जी ने यूँ ही नहीं कहा था बल्कि इसकी प्रमाणिकता को परखकर कहा था |कुछ समय से हमें सभी संचार माध्यमो के द्वारा पता चल रहा है की सभी ऊँचे ऊँचे ओहदों पर आसीन हस्तिओं द्वारा एक बात को लेकर बड़ी व्यग्रता दिखाई जा रही है वह यह की सभी कार्यालयों एवं एनी जगहों में आधिकारिक रूप से हिंदी के प्रायोगिक तौर पर प्रयोग की |ऐसे माननियों के द्वारा उठाई जा रही बात से एक मजेदार बात उभरकर सामने आ रही है वह है  कि वेचारे हिंदी पढने लिखने वालो या उन गिने चुने पञ्च सात राज्यों की जहाँ की भाषा हिंदी है जिसको अंग्रेजी के पिछलग्गुओ के द्वारा काउ जोन घोषित कर दिया गया है |
                             इन सभी बहसों को जब मैंने बारीकी से परख रहा था तब एक प्रश्न मेरे सामने यक्ष के रूप में बार बार आ रहा था लेकिन मैं उस यक्ष को बार बार शांत होने का संकेत देकर शांत कर रहा था | लेकिन किसी भी बात को आखिर कब तक रोका जा सकता था |आखिरकार उसे मुझे आदेश देना ही पड़ा वह प्रकट हो कहा क्या किसी भाषा को आदेशित करके मनवाया जा सकता है ?क्या कोई भाषा चाँद पढ़े लिखों की बपौती है की उसे जब चाहे अपनी सम्पति घोषित कर दें |भाषा का तो सम्बन्ध हमारी संस्कृति एवं संस्कारो से जुडा हुआ है | भाषा तो नदी के बहते हुए निर्मल जल के सदृश है |जिस प्रकार किसी प्राणी के जीवन के लिए जल की आवश्यकता होती है 
उसी प्रकार किसी व्यक्ति को समाज में अपना अस्तित्व बरकरार रखने के लिए एक भाषा की आवश्यकता होती है |यदि किशी भाषा को मानाने के लिए कोई फरमान जरी किया जाय तो मेरी समझ में मनो उस भाषा की भरी सभा में आबरू उतारी जा रही हो |कारण जबी तक मन किसी कार्य को करने के लिए तैयार न हो तब तक हम उसे अपना नहीं कह सकते हैं  |
                      किसी भाषा को जानने के प्रति लोगो को प्रेरित करना चाहिए न कि खोखली बयानबाजी | किसी ने सच कहा है कि जिसने अपनी माता की इज्जत  करना नहीं सीखा वह चाहे जितना भी पुरषार्थ कर ले उसका पुरषार्थ बेकार हो जाता है | उसी प्रकार जो अपनी राष्ट्र भाषा का सम्मान नहीं करता उस देश का भला नहीं हो सकता है | हमें महावीर प्रसाद द्विवेदी जैसे पुरोध की आवश्यकता है जो देवकीनंदन खत्री पैदा कर सकें जिनके द्वारा लिखे गए तिलस्म से परिपूर्ण उपन्यास चंद्रकांता संतति को पढने के लिए लोगो की हिंदी के प्रति हसरते जगी | साल भर में मात्र हिंदी दिवस या हिंदी पखवारा भर मन लेने से कम चलने वाला नहीं है और न ही दफ्तरों में तख्तियां में बड़े बड़े अक्षरों में हिंदी में तंग देने मात्र से ही कम चलने वाला है |यह तो वही कहावत हो गयी की जिन्दा में अपने पुरखो को पानी नहीं डे सके मरने पर जग्ग रचाने चले |
 जिन्दा पानी दिया नहीं, मुए दिए बड भोज |
देख दस संसार की , दिया पी० के ० रोय |
राजनेताओ के भाषण एवं कार्यालयों के दफ्ती में लिखकर टांगने वाले कर्यलायाध्य्क्षो से अच्छे तो वे हैं जो फक्र से अपनी टूटी फूटी ही सही मगर प्रचारो में और मनोरंजन के दौरान खुले दिल से इसको बोलने की कोशिश करते है |आज प्रचार के माध्यमो ने एक नया शब्द गधा है वह है हिंगलिश जो इन हंश का चोला धारण करने वाले बगुलों से तो ठीक ही है क्योकि भले ही वह हिंदी के शुद्ध शब्दों की जगह मिश्रित शब्दों का प्रयोग कर रहे हो मगर उन्हें उसे व्यक्त करने में तनिक संकोच तो नहीं होता |
हमारा देश सदियों से पराधीनता की बेडियो में जकड़ा रहा है और हिंदी को अपना स्वरूप प्राप्त करने के लिए जबरदस्त प्रतिस्पर्धा करनी पडी है तब जाकर उसे यह मुकाम हाशिल हुआ है |इस प्रतिस्पर्धा के दौरान उसने अपने अन्दर प्रत्येक भाषा से अधिकाधिक शब्दों को ग्रहण किया इसके बावजूद वह एक स्वंतंत्र भाषा है तथा उसकी लिपि वैज्ञानिक है |तथा यह प्रत्येक शब्द को व्यक्त करने की अद्भुत क्षमता अपने अन्दर संजोये हुए है | जरूरत है तो तोबस दृढ संकल्प और सच्चे मन से इसे और अधिक प्रभावी ढंग से व्याख्यायित करने की यदि हम अपने उद्देश्य की पूर्ति में कामयाब हो गए तो तो निश्चित हम अपना लक्ष्य भी प्राप्त कर पायेगें अन्यथ हिन्दिदिवास या पखवारा मानना मनाकर ही संतोष करके बैठ जाय |
             पिछले कुछ समय की कहानियो ,कविताओ और सामाजिक पत्रकारिता से जुड़े लेखो के तुलनात्मक अध्ययन करने पर पाया गया इसने लोगो के मध्य अपना स्थान बनाने में कुछ हद तक सफलता प्राप्त की है |इस प्रकार इस तथ्य को झुठलाया नहीं जा सकता कि जैसा कि कुछ तथा कथित भाषाई द्वेष रखने वाले अंग्रेजी के पिछलग्गू चमचो के द्वारा इतने बड़े जनसमुदाय के द्वारा बोली जाने वाली भाषा को काउ बेल्ट के रूप में संबोधित किया जाता है |आज बाजार की ताकत ने इसको वह स्वरुप प्रदान किया है जिसको हमारे कवी लेखको के समन्वित प्रयास के द्वारा भी हिंदी को उसका वाजिब हक दिलाने में सफल नहीं हो सके | मुझे यह स्वीकार करने में तनिक संकोच नहीं होता की हिंदी जानो बाजारवाद जो कभी भी अपने हित के अतिरिक्त कोई कार्य नहीं करता का आभार व्यक्त करना चाहिए भले ही उसने यह कार्य अपने उत्पदो के लिए ही सही हिंदी को बढ़ावा दिया |जबकि हमारे तथाकथित हिंदी के पैरोकार पैरवी कम मक्खन मलाई ज्यादा हजम किये |-----

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