Friday, 8 February 2019

***** प्रेम*****

प्रेम  !
एक एहसास है
पूर्ण होने का
मात्र पा लेना ही
प्रेम नहीं है
उत्सर्ग भी प्रेम ही है
यद्यपि धरती और आकाश
कभी नहीं मिलते
एक दूसरे से
लेकिन आज भी
उनके प्रेम को
आदर्श मानते हैं लोग
हिमालय कभी भी
नहीं पहुंचता समुद्र तक
फिर भी उसका प्रेम
नदियों के रूप में
अनवरुत पहुंचता है
उस तक
सूरज बहुत दूर होता है
धरती से
फिर भी तपिश के रूप में
धरती के सुख दुःख में
साथ रहता है
खुलेतौर पर प्रकृति
कभी भी नहीं करती
अपने प्रेम का इज़हार
फिर भी पातों पर मोती
डालकर
बनाती है अपने प्रेम को
चिरन्तन
क्योंकि प्रेम होता ही ऐसा
सम्भव नही होता
जिसे किसी परिधि में
बांध पाना

No comments:

Post a Comment